पृष्ठ:शशांक.djvu/३६५

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(३४६) 9 यशोधवलदेव बोले “अच्छा, अब सब लोग जाकर विश्राम करो। मेरा जी अच्छा है। वीरेंद्र ! समरभीति के पुत्र को अपने साथ रखो, देखना किसी बात का कष्ट न हो। लतिका! तुम बेटी मालती को अपने साथ ले जाओ"। सब लोग कोठरी के बाहर हुए। 2 बारहवाँ परिच्छेद प्रत्याख्यान सम्राट को रोहिताश्वगढ़ आए आज बारह दिन हो गए। संध्या का समय है। गढ़ के अंतःपुर के प्रासाद के एक छज्जे पर लतिका, तरला और मालती बैठी हैं। मालती अब दोनों के साथ अच्छी तरह हिल मिल गई है। लतिका तो उसकी न जाने कब की पुरानी सखी जान पड़ती है। छज्जे पर बैठी तीनों युवतियाँ सोनपार के नीले पहाड़ों को देख रही हैं । लतिका बोली “क्यों बहिन मालती ! तुम्हारे भाई तो बड़े भारी अश्वारोही योद्धा हैं। उनके साथ साथ तुम कैसे इन पहाड़ों को लाँघती हुई आई हो ?" "मैं भी घोड़े पर अपने भाई के साथ साथ बराबर आई हूँ"। क्या इसी तरह काछा काछे हुए स्त्री के वेश में ?" "नहीं"। "तुमने पुरुष का वेश क्यों धारण किया ?" "एक युवती को साथ लेकर चलने में भैया को बाधा होती, एक- कारण तो/ यह था और दूसरा-"।