(३४६) फेरना सहज नहीं है। फिर भी मैं भर सक कोई बात उठा न रखू गी । यशो० -हाँ, तरला! ये दोनों काम हो जाते तो मैं आनंद से अपना जीवन समाप्त करता । (तरलो वृद्ध का आशीर्वाद ग्रहण करके बाहर निकली । दो पहर रात बीत गई है। कृष्ण पक्ष का टेढ़ा चंद्रमा निकल कर पर्वतमालाओं पर धुंधली आभा डाल रहा है। सम्राट् शशांक गढ़ के परकोटे पर अकेले टहल रहे हैं। वे खा पी कर सोने गए थे, पर उन्हें नींद न आई। ने शयनागार से निकल कर चाँदनी के प्रकाश में उज्वल परकोटे पर इधर उधर टहलने लगे। उस समय रोहिताश्वगढ़ के भीतर सब लोग सो रहे थे। फाटक को छोड़ और स्थान के दीपक बुझ गए थे। सम्राट् जब से रोहिताश्वगढ़ में आ कर ठहरे हैं तब से आस पास के पहाड़ी गावों में नित्य उत्सव होता है। किसी गाँव से गाने बजाने का शब्द बीच बीच में आ जाता है। सम्राट को शयना- गार से निकलते देख एक शरीर रक्षी उनके पीछे पीछे चला, पर सम्राट के निषेध करने पर वह दुर्गप्राकार के नीचे अँधेरे में खड़ा रहा । शशांक परकोटे पर से ही तोरण, की ओर बढ़ने लगे। सहसा किसी के पैर की आहट सुनकर वे खड़े हो गए। उन्होंने देखा कि कुछ दूरपर उज्वल चाँदनी में श्वेत वस्त्र धारण किए एक स्त्री खड़ी है। सम्राट ठिठक कर खड़े हो गए। चट उनका हाथ तलवार की मूठ पर जा पड़ा। उस समय बौद्ध संघ किसी न किसी उपाय से सम्राट की हत्या करने के घात में रहता था। इसी से सम्राट् का हाथ तलवार पर गया। उन्होंने धीरे से पूछा "कौन है ?" उत्तर मिला मैं हूँ 'तरला । शशांक ने हँस कर तलवार की मूठ पर से हाथ हटा लिया और पूछा "तरला ! इतनी रात को कहाँ ?" "महाराज यदि अभयदान दें तो कहूँ"।
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