पृष्ठ:शशांक.djvu/३७२

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मालती सिर नीचा किए हुए धीरे से बोली "असंभव, महाराज !" चौंककर सम्राट ने पूछा "क्या कहा ?" "असंभव” | "सुनो मालती ! मेरे लिए चित्रा ने प्राण दे दिया-मैं इस जीवन में उसे नहीं भूल सकता । मेरा शेष जीवन अब उसी पाप के प्रायश्चित्त में बीतेगा। मैं तुम्हें किस प्रकार अपने जीवन का साथी बना सकता हूँ ?” अकस्मात् सिर का वस्त्र हट गया। उज्ज्वल चाँदनी चंद्रमुख पर पड़ी। सम्राट ने देखा कि मालती ध्यान में मग्न है। बहुत देर पीछे उसने धीरे धीरे कहा- "महाराज ! बाल्यावस्था से ही समुद्रगुप्त के वंशधर की कीर्ति इन कानों में पड़ती आ रही है। जिस मूर्ति की अव्यक्त भावना से सारा जगत् सौंदर्य्यमय दिखाई पड़ता था उसका साक्षात् दर्शन प्रतिष्ठानपुर में हुआ है, जिन पिंगल केशों की चर्चा दक्षिण में मैं सुनती आ रही थी उन्हें प्रतिष्ठानपुर में आकर देखा । महाराज ! चपलता क्षमा हो, जो मेरे हृदय.क्ने प्रत्येक भाव के साथ मिला हुआ है, जो हृदय-स्वरूप हो रहा है, उसका ध्यान इस जोवन में किस प्रकार हट सकता है ?" "मालती! मेरे हृदय में जो भयंकर ज्वाला है उसका अनुभव दूसरा नहीं कर सकता। मैं सदा उसी ज्वाला में जला करता हूँ। मैं कभी उसे भूल नहीं सकता। इसके लिए मुझे क्षमा करो। जो तुम कहती हो वह इस जन्म में नहीं हो सकता, कभी नहीं हो सकता। तुम्हारे मन को मुझसे जो कष्ट पहुँचा उसके लिए क्षमा करो। मैं बड़ा. भारी अभागा हूँ, मेरे जीवन में सुख नहीं है । बौद्धाचार्य शक़सेन ने यह बात मुझसे बहुत पहले कही थी, पर उस समय मैंने कुछ ध्यानू न