( ३५२) खड़ी थी। सम्राट को अपनी ओर आते देख उसने सिर का वस्त्र कुछ नीचा कर लिया। सम्राट ने पास जाकर देखा कि सैन्यभीति की बहिन (मालती है। तरला ने मालती के कान में न जाने क्या कहा । फिर सम्राट की ओर फिर कर वह बोली "महाराज! आपने जो कहा मैंने मालती से कह दिया, फिर भी ये आप से कुछ कहना चाहती हैं । मैं हट जाती हूँ"। तरला इतना कह कर दूर चली गई । शशांक ने पूछा "मालती ! तुम्हें मुझसे क्या कहना है ?" मालती चुप । "क्या कहती हो, कहो'। कुछ उत्तर नहीं। "तुम्हें कहने में संकोच होता है, तरला को बुलाऊँ ?" बहुत अस्फुट स्वर में धारे से उत्तर मिला "नहीं, प्रभो !" "मुझ से क्या कहने आई हो?" कोई उत्तर नहीं। "मालती ! मैंने सुना है कि तुम मुझे चाहती हो । मालती से फिर भी कोई उत्तर न बन पड़ा। "तुमने तरला से तो सब सुना ही होगा। फिर जान बूझकर ऐसा क्यों करती हो ? तुम परम प्रतिष्ठित भीतिवंश की कन्या हो। तुम्हारी सी सर्वगुणसंपन्ना अनुपम रूपवती को पाकर मैं अपने को परम भाग्यवान समझता । पर मेरे भाग्य में नहीं है।" शशांक ने ठंढी साँस लेकर फिर कहा "तुम अभी एक प्रकार से अनजान हो, यदि भूल से इस . बखेड़े में पड़ गई हो तो अब से जाने दो। सैन्यभीति तुम्हारे लिए उत्तम वर हूँढ़कर तुम्हारा विवाह करेंगे।
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