पृष्ठ:शशांक.djvu/३७४

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( ३५५) पीछे लहरा उठे। जब तक वे दिखाई पड़ते रहे मालती एकटक उनकी ओर ताकती रही। तेरहवाँ परिच्छेद अभिशाप आज यशोधवलदेव के जीवन का अंतिम दिन है। पलंग के पास सम्राट शशांक, वीरेंद्रसिंह, सैन्यभीति, लतिका, तरला, मालती और गढ़ के पुराने भृत्य आँखों में आँसू भरे खड़े हैं । वृद्ध महानायक निश्चेष्ट भाव से आँख मूं दे पड़े हैं। थोड़ी देर में उन्होंने आँख खोली और सम्राट को संबोधन करके क्षीण स्वर से कहने लगे “पुत्र ! मैं तो अब चला । वंशगौरव के उद्धार का जो व्रत तुमने लिया है उसपर दृढ़ रहना । हर्षवर्धन तुम्हारा कुछ नहीं कर सकते । अन्याय से अजित थानेश्वर का साम्राज्य एक पीढ़ी भी न चलेगा। हर्ष के सामने ही- वह छिन्न भिन्न होने लगेगा और हर्ष यह देखते हुए मरेंगे कि थानेश्वर का सिंहासन विश्वासघाती अमात्यों के हाथ में जा रहा है। यदि आजीवन मैंने क्षात्रधर्म का पालन किया होगा तो मेरा यह बचन सत्य होगा_! जैसे लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं संभव है तुम्हारे कार्य में वाधा पड़े, पर निराश न होना। यदि मगध में रहना असंभव हो जाय तो माधवगुप्त को मगध के सिंहासन पर छोड़ दक्षिण की ओर चले जाना । पर यह देखते रहना कि थानेश्वर का कोई राजपुत्र या राजपुरुष मगध में प्रवेश न करने पाए। दक्षिण