(३६३ ) सकता, महाराज | महाराज ! मैं मंडलागढ़ का पुराना सैनिक हूँ, तक्ष- दत्त के समय का सेवक हूँ। इन्हीं हाथों से मैंने नरसिंहदत्त को खेलाया है । उनके पिता के साथ भी मैं युद्ध में गया हूँ। अंत में इन्हीं हाथों से उनके पुत्र को चिता पर रखे चला आता हूँ"। "तो अब नरसिंह भी इस संसार में नहीं हैं । नरसिंहदत्त के जीते जी भला कब कान्यकुब्ज शत्रुओं के हाथ में जा सकता था ? जब तक तक्षदत्त के पुत्र के शरीर में प्राण रहा तब तक थानेश्वर की एक मक्खी भी कान्यकुब्ज नगर में नहीं घुसने पाई । महाराज ! नरसिंहदत्त वीर थे, वीर के पुत्र थे, वीर कुल में उत्पन्न थे। तक्ष दत्त के पुत्र ने एक वीर के समान मृत्यु का आलिंगन किया । सनातन से तनुदत्त का वंश सम्राट की सेवा में, साम्राज्य के कार्य में, अपना जीवन विसर्जित करता आया था। तनुदत्त के अंतिम वंशधर ने, मंडला के अंतिम अधीश्वर ने, भी अपने वंश का गौरव अखंडित रखा, अपने पूर्वजों की परंपरा का पालन किया और यह अकर्मण्य वृद्ध जीता जागता महाराज को संवाद देने आया है। रणनीति बड़ी कठिन है; जी में तो मृत्यु की कामना भरी हुई थी पर रणनीति के अनुसार मुझे युद्धक्षेत्र को छोड़ कर मगध के निर्जन श्मशान में आना पड़ा"। "और क्या क्या हुआ, कहो” । "कहता हूँ; महाराज ! कहता हूँ, सुनिए । जिस समय प्रतिष्ठानदुर्ग पर अधिकार हुआ था उस समय, महाराज ! आप दुर्ग के फाटक तक ही पहुँच पाए थे । वृद्ध के मुँह से यदि कुछ कठोर शब्द निकलें तो क्षमा करना । जब आप फाटक पर पहुँचे थे तब तक दुर्ग के तीसरे प्राकार पर अधिकार नहीं हुआ था । समुद्रगुप्त के वंशधर समुद्रगुप्त के दुर्ग में निर्विघ्न प्रवेश करेंगे यही कह कर देखते देखते वे एक फलांग में दुर्ग के प्रकार पर चढ़ गए, मृत्यु के सामने उन्होंने अपनी छाती
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