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पृष्ठ:शशांक.djvu/३८३

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. ( ३६४ ) कर दी-क्यों, इसको या तो आप जानते होंगे या वे ही जानते रहे होंगे | मृत्यु उन पर हाथ न लगा सकी, प्रतिष्ठानदुर्ग पर अधिकार हो गया । आपने दल बल सहित दुर्ग में प्रवेश किया । पर जिसने आपके लिए अपने प्राणों पर खेल दुर्ग का फाटक खोला. उसका कहीं पता लगा ? चित्रा--महाराज ! चित्रा उनके बड़े आदर की वस्तु थी । चित्रा ही के कारण उन्होंने आपको अपना मुँह न दिखाया। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि अब इस जीवन में आपको मुँह न दिखाएँगे। यही कारण है कि इतने बड़े राजराजेश्वर होकर भी आप उनका पता न पा सके । वे कहीं भागे नहीं थे, आप के साथ ही साथ रहते थे। भागना तो तनु दत्त के वंश में कोई जानता ही न था। प्रत्येक युद्ध में वे महाराज के साथ रहते थे, प्रत्येक रणक्षेत्र में वे आपकी पृष्ठरक्षा करते थे, पर आप उनको नहीं देख पाते थे। "सैनिक ! मैं यह सब जानता हूँ, मैं इसे भूला नहीं हूँ। तुम्हारा भी मनुष्य का चोला है, अब और निष्ठुरता न करो, मुझे अब और न जलाओ, दया करो। नरसिह और चित्रा का ध्यान मुझे सदा जलाता रहता है, तुम ज्वाला और न बढ़ाओ। नरसिंह नहीं रहे; उन्होंने मेरे लिए अपना प्राण निछावर कर दिया-यही बात मेरे हृदय को बराबर बेधा करती है । पर तुम कहते चलो, जब तक मैं अंत तक न सुन लूंगा तब तक मरूँगा भी नहीं। "सुनिए, महाराज ! वृद्ध का अपराध मन में न लाना। मेरे स्त्री पुत्र कोई नहीं है, कभी कोई था भी नहीं। इन्हीं हाथों से तक्षदत्त के पुत्र और कन्या को मैंने पाला और इन्हीं हाथों से नरसिंहदत्त को चिता पर रखा। मेरे हृदय में भी बड़ी ज्वाला है। आपही तनुदत्त के वंशलोप के कारण हैं; आपही के कारण चिन्ना मरी, महाराज ! और आपही के कारण नरसिंह भी. मरे । पर तुम हमारे महाराज हो, हमारे