पृष्ठ:शशांक.djvu/३९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(३७५ ) "प्रभो ! तो फिर निश्चय है कि शत्रुसेना राजधानी पर आक्रमण करने आ पहुँची। "नवीन ! तुम चटपट बाहर जाओ, नगर के सब फाटक बंद करो और सैनिकों को युद्ध के लिये सन्नद्ध करो। नवीनदास अभिवादन करके चला गया। आधी घड़ी में नगर के भीतर स्थान स्थान पर शंखध्वनि हो उठी, नगर के प्राकार पर सैकड़ों पंसाखे दिखाई देने लगे। माधववर्मा ने रविगुप्त से सारी व्यवस्था कह सुनाई । रविगुप्त हँसकर बोले "अच्छी बात है, बताओ मुझसे भी कुछ हो सकता है। माधव ने कहा "हाँ हो सकता है। "क्या, बताओ "आ पाँच सहस्त्र पुररक्षियों को लेकर नगर की रक्षा करें। मेरी सेना के जितने लोग अब तक आ चुके हैं उन्हें लेकर मैं नदी के किनारे जाकर शत्रुसेना को देखता हूँ। तब तक आप नगर के फाटकों को . दृढ़ करें"। बाहर निकले "अच्छी बात है। पर तुम लौटोगे कब ?" "चाहे जिस प्रकार होगा सबेरा होते होते मैं नगर में लौट आऊँगा"। रविगुप्त और माधववर्मा प्रासाद के भास्करवर्मा की वंगदेश पर फिर चढ़ाई सुनकर वसुमित्र अधिकांश सेना लेकर उन्हें रोकने के लिए गए थे। उन्हें पीछे छोड़ भास्करवा सीधे कर्णसुवर्ण पर आ धमकेंगे इस बात का उन्हें स्वप्न में भी ध्यान न था। वे ना था के लिए केवल पाँच सहस्र सेना छोड़ जल्दी जल्दो वंगदेश की ओर बढ़े जा रहे थे।