पृष्ठ:शशांक.djvu/४०१

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( ३८४) थोड़ी देर में सूर्योदय हुआ। सूर्य की किरनों के ऊपर पड़ने से शशांक को कुछ चेत हुआ। मालती ने इस बात को न देखा। वह भूमि पर पड़ी विलाप कर रही थी । सम्राट ने उसके सिर पर हाथ रख कर पुकारा “अनंत !” मालती चकपका कर उठ बैठी "कौन ?" शशांक ने अत्यंत क्षीण स्वर से पूछा "तुम कौन हो ?" मालती ने कहा "अहा जाग गए, सचमुच जाग गए। महाराज- महाराज ! मैं हूँ, मालती। मैं रमापति नहीं हूँ-मैं सचमुच मालती हूँ | रोहिताश्वगढ़ से मैं बराबर साथ हूँ। एक दंड के लिए भी मैंने आपका साथ नहीं छोड़ा। पुरुष का वेश धारण करके मैंने जो जो किथा वह किसी स्त्री से नहीं हो सकता । सदा तुम्हारे साथ रहने के लिए ही मैं रमापति के नाम से शरीररक्षी सेना में भरती हुई"। "क्या कहा ? मालती, तुम रमापति ! कुछ समझ में नहीं आता- अनंत कहाँ हैं !" "प्रभो ! मुझे पता नहीं है।" "अनंत-नहीं-नरसिंह-चित्रा । युद्ध में क्या हुआ ?" "प्रभो ! युद्ध हो गया, माधवगुप्त की जीत हुई। माधवगुप्त की जीत की बात सुनते ही घायल सम्राट उठ बैटे और बोले "माधवगुप्त को जीत ? हर्षवर्द्धन की जीत कहो; कभी नहीं। यशोधवलदेव चले गए, नरसिंह चले गए, अनंत का पता नहीं। क्या हुआ ? मैं तो हूँ, वीरेंद्र हैं, वसुमित्र है, माधववर्मा भी होंगे। प्राचीन गुप्त साम्राज्य का गौरव मैं फिर स्थापित करूँगा । पर-तुम कौन हो ? तुम तो रमापति हो ? नहीं-नहीं-तुम हो मालती। मालती, तुम कहाँ ? नहीं तुम तो रमापति हो-तुम्हें इतने दिन तो मैंने नहीं पह- चाना था---"।