पृष्ठ:शशांक.djvu/४०२

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( ३८५) "महाराज, प्रभो, स्वामिन् ! मैं मालती ही हूँ। तुम्हें सदा देखते रहने के लिए ही अब तक रमापति बनी थी। "मालती-मालती-चित्रा ! यह नहीं हो सकता" "न होने की कोई बात ही नहीं है, प्रभो! तुम्हें देखने की आशा से मैं दक्षिण से जंगल पहाड़ लाँघती इस देश में आई। लोक लजा आदि सब कुछ छोड़ बराबर साथ साथ फिर रही हूँ और फिरूँगी। मुझे और कुछ न चाहिए, बस इतना ही अधिकार मेरा रहने दीजिए। मैं और कुछ नहीं चाहती। आपके हृदय पर चित्रा का जो अधिकार है उसमें मैं कुछ भी न्यूनता नहीं चाहती। समुद्रगुप्त के वंश का जी गौरव उनके परम प्रतापी वंशघर के हृदय में विराज रहा है वही एक अबला के हृदय में भी जगा हुआ है । इसी नाते मुझे चरणों के समीप रहने का अधिकार दीजिए"। "तुम अपना जीवन क्या इसी प्रकार नष्ट करोगी, कहीं विवाह न करोगी?" "नहीं, महाराज ! मुझसे विवाह करके संसार में कोई सुखी नहीं हो सकता, मैं देखती हूँ आप भी मुखी नहीं हो सकते । जिस बात से महाराज को दुःख होता है उसे कभी मैं अपने मुँह पर न लाऊँगी । जंगल जंगल पहाड़ पहाड़ महाराज के साथ फिरकर पहाड़ की चोटियों पर से, वृक्ष की शाखाओं पर से समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त और शशांकनरेंद्रगुप्त के विजयगीत गाऊँगी। मेरी वाणी से महाराज के मुख पर कुछ भी प्रफुल्लता दिखाई देगी, महाराज की सेना को कुछ भी उत्साह मिलेगा, तो मैं अपना जन्म सफल समझूगी । बस, महाराज ! मुझे और कुछ न चाहिए! बोलते बोलते मालती का मुख आवेश से रक्तवर्ण हो गया, सुनते