के अत्याचारों से दुखी होकर कलिंगवाले अब तक गुप्तवंश का नाम लेते हैं । कलिंग में पुष्पगिरि आदि संघाराम बड़े प्रबल हैं। बौद्ध आचार्य बालकों को पकड़ ले जाते हैं और संघ में भरती करते हैं । तांत्रिक बौद्ध बालकों को चुराकर बलि चढ़ा देते हैं । यह दशा वहाँ सैकड़ों वर्ष से है। प्राचीन वर्णाश्रम धर्म की रक्षा के लिए बहुत से लोग समुद्रपार द्वीपांतरों में चले गए हैं। महाराज! आप धर्मरक्षक हैं, आपके ही हाथ उनका उद्धार हो सकता है । शशांक-मैं तवश्य चलूँगा। बौद्ध संघ राजद्रोही हैं। इसी राज- द्रोह के पाप से बौद्ध मत का चिन्ह तक इस देश में न रह जायगा । डेढ़ महीने तक सम्राट शशांक ताम्रलिप्ति में रहे। अनतवर्मा, माधववर्मा और वसुमित्र जिस समय अपनी सेना सहित माधवगुप्त को लेकर मगध में पहुँचे उस समय थानेश्वर की सेना देश छोड़ कर जल्दी जल्दी दक्षिणपश्चिम की ओर जा रही थी। यह देख कामरूप की सेना भी अपने देश लौट पड़ी । माधवगुप्त निविघ्न मगध के सिंहासन पर प्रतिष्टित किए गए। थोड़े दिनों में सुनाई पड़ा कि दक्षिणापथ के सम्राट द्वितीय पुलकेशी के हाथ से नर्मदा के तट पर हर्षवर्धन ने गहरी हार स्वाई। इसके उपरांत फिर हर्षवर्द्धन ने माधव- गुप्त को मित्र छोड़ कभी सामंत आदि कहने का साहस न किया । माधवगुप्त के सिंहासन पर बैठने के बाड़े ही दिनों पीछे कलिंग और दक्षिण कोशल में "परनेश्वर परमभट्टारक परमभागवत महाराजा- धिराज श्रीशशांक नरेंद्रगुप्त" की जयध्वनि गूंज उठी। प्राचीन वर्णाश्रम धम्म की मऱ्यांदा वहाँ फिर स्थापित हुई । सम्राट् शशांक और उनके सामंत राजाओं की ओर से शास्त्रज्ञ ब्राह्मणों को बहुत सी भूमि मिली । इससे बौद्धसंघ का प्रभाव कम हुआ और तांत्रिकों का अत्याचार दूर हुआ।
पृष्ठ:शशांक.djvu/४०७
दिखावट