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पृष्ठ:शशांक.djvu/४१

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( २१ ) से आधी तलवार निकाल चुका था। इतने में सादा श्वेतवस्त्र डाले नगे पैर एक वृद्ध सभामंडप में घबराए हुए पहुंचे। उन्हें देखते ही विदेशीय सैनिकों ने भी झुककर अभिवादन किया । हम लोग भी उन्हें पहले देख चुके हैं । वे गुप्तवंशीय सम्राट महासेन गुप्त थे । उन्हें देखते ही वृद्धा हँसकर आगे बढ़ी । प्रौढ़ योद्धा का सिर कुछ नीचा हो गया । वृद्ध सम्राट एके विशेष विनयसूचक भाव में उस वृद्धा की ओर देख रहे थे जिससे यही लक्षित होता था कि वे बालक के अपराध के लिये क्षमा चाहते थे, किन्तु प्राचीन साम्राज्य का अभिमान उनका कंठ खुलने नहीं देता था । वृद्धा हँसती-हँसती बोली "भैया ! शशांक की बात मत चलाना। प्रभाकर कुछ ऐसे पागल नहीं है जो बालक की बात मन में लाएँगे ।” प्रौढ़ योद्धा सिर नीचा किए भीतर ही भीतर दाँत पीस रहा था । वृद्धा के पहनावे से जान पड़ता था कि वह पंचनद की रहनेवाली थी। अब तक पंजाब की स्त्रियाँ प्रायः वैसा ही पहनावा पहनती हैं । कपिशा और गांधार की स्त्रियों के पहनावे के समान उस पहनावे में भी स्त्रीसुलभ रमणीयता और कोमलता का अभाव था। दूर से पहनावा देखकर स्त्री पुरुष का भेद करना तब भी कठिन था । किंतु पहाड़ी देशों के लिये वैसा पहनावा उपयुक्त था । वृद्धा के बाल सन की तरह सफेद हो गए थे। गालों पर झुरियाँ पड़ी हुई थीं। शरीर पर एड़ी के पास तक पहुँचता हुआ चोल या अँगरखा था, सिर पर भारी पगड़ी थी। पैरों में जड़ाऊँ जूतियाँ थीं। पीठ पर बाल खुले हुए थे। वे सम्राट महासेनगुप्त की सगी बहिन, स्थाण्वीश्वर ( थानेश्वर ) के महाराज आदित्यवर्द्धन की विधवा पटरानी, महादेवी महासेनगुप्ता थीं। उनके साथ में जो अधेड़ पुरुष था वह आदित्यवर्द्धन का ज्येष्ठ पुत्र, स्थाण्वीश्वर के राजवंश का प्रथम सम्राट प्रभाकरवर्द्धन था । जिस समय आदिल्यवर्द्धन वर्तमान थे उसी समय से महासेनगुप्ता स्वामी के नाम से सब राज-काज चलाती थीं । जब प्रभाकर-