( २२ ) वर्द्धन स्थाण्वीश्वर के सिंहासन पर बैठे तब भी महादेवी सिंहासन के पीछे परदे में बैठी-बैठी पुत्र के नाम से अपना प्रचंड शासन चलाती थीं। अस्सी वर्ष की होने पर भी थानेश्वर में उनका आतंक वैसा ही बना था । आर्थ्यावर्त के सब लोग जानते थे कि स्थाण्वीश्वर के सिंहासन पर बैठे हुए, पंचनद का उद्धार करनेवाले, हूणों, आभीरों और गुर्जरों का दमन करनेवाले सम्राट पदवीधारी प्रभाकरवर्द्धन महादेवी के हाथ की कठपुतली मात्र हैं। उन्हीं की उँगलियों पर सारा थानेश्वर और उत्तरापथ का समस्त राजचक्र नाचता था। महादेवी हँसती-हँसती अपने भतीजे और पुत्र का हाथ पकड़े सभागृह से बाहर निकलीं। वृद्ध सम्राट सिर नीचा किए उनके पीछे. पीछे चले। अब एक-एक करके सब परिचारक आने लगे। टूटा हुआ सिंहासन हटा दिया गया। सभामंडप सुसज्जित हुआ। वेदी के ऊपर केवल सम्राट का एक सिंहासन रहा । पाँचवाँ परिच्छेद परचूनवाली दूकान पर बैठी काली भुजंग एक प्रौढ़ा स्त्री आटे. चावल, दाल, नमक, तेल, घी आदि के साथ-साथ अपनी मंद मुसकान बेच रही थी। इतने बड़े पाटलिपुत्र नगर में जिस प्रकार चावल दाल के गाहक थे उसी प्रकार उसकी मंद मुसकान के गाहकों की भी कर्मी नहीं थी । दूकान के बीच में बैठा हमारा वही पूर्वपरिचित तेली विकी हुई मुसकान की
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