पृष्ठ:शशांक.djvu/४४

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(२४ ) उस पथ पर संध्या सबेरे को छोड़ और कभी कोई आता-जाता नहीं दिखाई पड़ता था। आज कोई विशेष बात थी जो उस पर लोगों की भीड़-भाड़ दिखाई देती थी। बालक कभी-कभी भीड़ में मिल जाता था और वह पुरुष बड़ी कठिनता से उसे ढूंढ़ कर निकालता था। मार्ग के दक्षिण ओर बहुत से लोग एकत्र थे जो देखने में युद्धव्यवसायी जान पड़ते थे। घास के मैदान में बहुत से शिविर ( डेरे ) खड़े थे जिनके सामने सैनिक इधर-उधर आते-जाते दिखाई पड़ते थे। उनमें से अधिक- तर लोग खाने और रसोई बनाने में लगे थे। कुछ लोग नित्य के सब कामों से छुट्टी पाकर पेड़ों की छाया के नीचे लेटे थे। मार्ग से थोड़ा उत्तर चल कर पेड़ों के नीचे यहाँ से वहाँ तक पंक्ति में घोड़े बँधे थे। उनके सामने स्थान-स्थान पर साज और शस्त्र-भाले, बरछे; तलवारें और धनुर्वाण इत्यादि-ढेर लगाकर रखे हुए थे। सड़क के दोनों ओर थोड़ी-थोड़ी दूर पर सजे हुए विदेशी सैनिक नदी से स्नान करके आ रहे थे। वाहक लोग गदहों पर बड़े-बड़े लोहे के कलसे लाद कर अश्वा- रोहियों के पीने के लिए पानी ला रहे थे। छकड़ों और रथों के मारे सड़क पर चलने की जगह न थी। छकड़े अश्वारोहियों और घोड़ों के खाने-पीने की सामग्री, नगर से लाद कर लाते थे और बोझ ठिकाने उतार कर फिर नगर की ओर लौटते थे। कभी-कभी छकड़ों के दोनों ओर सवार भी चलते थे और उन्हें शिविर तक ले जाकर सामग्री उतरवाकर छोड़ देते थे। नगर से कोस भर पर एक बड़े पीपल के पेड़ की छाया के नीचे कई आदमी बैठे बातचीत कर रहे थे। उनके सामने कई एक भाले जुटा कर रखे हुए थे। एक ओर भूमि पर एक बालिका या स्त्री पड़ी थी। उसके दोनों हाथ चमड़े के बंधन से कसे थे और दोनों पैर एक रस्सी द्वारा खूटे से बँधे थे । वह बीच बीच में सिर उठा उठा कर आने जाने वालों की ओर ताकती और फिर हताश होकर पड़ जाती थी।