( ३० ) संध्या हो चली थी। झगड़े की बात नगर भर में फैल गई । उत्पाती दुष्ट दल बाँध-बाँध कर लोगों को भड़काने लगे। सेना दल को लौटते देर नहीं कि नागरिक शिविर लूटने में लगे । मुट्ठी भर शांतिरक्षक उन्हें किसी प्रकार न रोक सके । अंत में नगरवासियों ने शांतिरक्षकों को मार भगाया। लूट-पाट कर चुकने पर उन्होंने डेरों में आग लगा दी। दूर तक जलते हुए डेरों की आकाश तक उठती हुई लपट देख कर थानेश्वर के सेनानायको ने जाना कि शिविर में कुशल नहीं। नगर में एक सहस्र से कुछ अधिक शरीर रक्षक अश्वारोही थे। उन्हें लेकर सेनानायक पड़ाव पर पहुँचे। उस समय अग्नि जलाने के लिये और कुछ न पाकर बुझ चुकी थी। उन्होंने शिविरों के आस-पास जाकर देखा कि उन्मत्त और बंदी सैनिकों की भीषण हत्या करके नागरिकों ने डेरों में आग लगा कर सब कुछ भस्म कर डाला है। छठाँ परिच्छेद दुर्गस्वामिनी का कंगन रोहिताश्वगढ़ आर्यावर्त के इतिहास में बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध है । यह गढ़ दक्षिण मगध और करुष * की दक्षिणी सीमा पर स्थित था और दक्षिण के जंगली प्रदेश का एक मात्र प्रवेशद्वार था। जब तक का इतिहास मिलता है तब से लेकर इधर तक इस गढ़ का अधीश्वर जंगली जातियों का शासक और अधिपति समझा जाता था।
- करुष देश आजकल का आरे या शाहाबाद का जिला।