( ३४ ) थी; कुलपरंपरा से उनके यहाँ राजसेवा चली आती थी इससे सम्राट के पास ही उन्हें रहना पड़ता था। जब गुप्तसाम्राज्य नष्ट हुआ तब उनके वंशजों की दशा अत्यंत हीन हो गई। विदेश में जो अधिकार उन्हें प्राप्त थे वे उनके हाथ से धीरे धीरे निकल गए । गौड़ और बंगदेश में जिनकी कुछ भूमि थी कुछ दिनों तक वे सुख से रहे । पीछे महासेनगुप्त के पिता दामोदरगुप्त के समय में उनके अधिकार भी नष्ट हो गए। पाटलिपुत्र और मगध में चारों ओर ऐसे लोग दिखाई देने लगे जिनके पास उच्चवंश के अभिमान के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह गया था। प्राचीन अभिजातवंश और अमात्यवंश की दुर्दशा के साथ साथ गुप्त- साम्राज्य की दशा भी दिन दिन हीन होती जाती थी। रोहिताश्व के गढ़पति गुप्तसाम्राज्य की बढ़ती के दिनों में अत्यंत प्रतापशाली थे। दक्षिणप्रांत की रक्षा करने के कारण सम्राटों से उन्हें बहुत सम्मान प्राप्त था । जिस समय देश पर देश अधिकृत होकर गुप्तसाम्राज्य में मिलते जाते थे रोहिताश्व के गढ़पतियों को मालव और बग देश में बहुत सी भूमि मिली थी। जब साम्राज्य का ध्वंस आरंभ हुआ तब मालव की भूमि रोहिताश्ववालों के अधिकार से निकल गई। पर जब तक बंगदेश में उनकी भूसंपति बनी रही तब तक उन्हें किसी बात का अभाव नहीं था। सम्राट् दामोदरगुप्त के समय में बंगदेश के शासक ने राजस्व भेजना बंद कर दिया। पर उसके पीछे भी बहुत दिनों तक रोहिताश्व के गढ़पति अपनी भूमि का कर पाते रहे । धीरे धीरे वह भी बंद हो गया । दुर्ग के आस पास की पथरीली भूमि पर हो उनका अधिकार रह गया। उसकी उपज का षष्ठांश ही वे पाते. थे और उसी से कष्टपूर्वक अपने दिन काटते थे। जो वृद्ध प्रातःकाल परिखा (खाई ) के किनारे बैठे दातुन कर रहे थे वे रोहिताश्वगढ़ के वर्तमान अधीश्वर यशोधवलदेव थे। यशोधवलदेव अति प्राचीन और
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