प्रतिष्ठित वंश के थे । महानायक की पदवी पुरुषपरंपरा से उनके यहाँ चली आती थी और गुप्तसाम्राज्य में उन्हें राजकुमारों के तुल्य सम्मान प्राप्त था । यशोधवलदेव की अवस्था सत्तर से ऊपर होगी । दामोदर- गुप्त के समय में उन्होंने अनेक युद्धों में कीचि प्राप्त की थी। महा- सेनगुप्त के समय में भी उन्होंने मौखरीवंश के राजाओं को पराजित कर के दक्षिण मगध में विद्रोहाग्नि शांत की थी। उनके एक मात्र पुत्र का नाम कीर्तिधवल था । पुत्र भी पिता के समान ही यशस्वी और पराक्रमी था। अभाव में जीवन व्यतीत करना उससे न देखा गया। उसने बिना पिता से पूछे बंगदेश में जाकर अपने पूर्व पुरुषों की भूमि पर अधिकार करना चाहा। पर नदी से घिरे समतट प्रदेश में वह मारा गया। स्वामी का मृत्यु संवाद पाकर कीर्तिधवल की पत्नी ने तो अग्नि- प्रवेश किया। तब से भग्नहृदय वृद्ध यशोधवलदेव मातृ-पितृ-हीना पौत्री को लिए पूर्वजों के पुराने दुर्ग में किसी प्रकार अपने जीवन के दिन पूरे कर रहे हैं। पुत्र के मरे पीछे उनकी दशा दिन-दिन और दीन होती गई। आस-पास की प्रजा नियमित रूप से कर भी नहीं देती थी। वेतन न पाकर दुर्ग-रक्षक एक-एक करके काम छोड़ कर चले गए। होते-होते बूढ़े परिचारक रग्घू और नन्नी टहलनी को छोड़ गढ़ में और कोई न रह गया। उस समय भी गढ़पति के अधिकार में आस-पास की जो भूमि रह गई थी उसका कर यदि नियमित रूप से मिला जाता तो उन्हें अन्न-कष्ट न होता। पर पास में आदमो न होने से उपज का षष्ठांश अन्न गढ़ में न पहुँचता था । जब कोई माँगने ही न जाता तब प्रजा को आप से आप कर पहुँचाने की क्या पड़ी थी। अंत में युवराज भट्टारक पादीय महानायक यशोषवलदेव को अन्नाभाव से विवश होकर अपनी स्वर्गीया पत्नी का चिह्नस्वरूप अलंकार बेचना पड़ा।
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