पृष्ठ:शशांक.djvu/५८

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( ३८ ) हूँगा । पर उनसे यह कह देना कि मुझमें सामर्थ्य नहीं, मैं अब किसी योग्य नहीं रह गया हूँ। आने पर उन्हें मुट्ठी भर अन्न भी दे सकूँ गा कि नहीं, नहीं कह सकता। मेरे पास अब न लोकबल है न अर्थबल । तुम तो मेरी दशा देख ही रहे हो । ऐसा न होता तो क्या मैं दुर्ग- स्वामिनी का कंगन कभी अपने हाथों से बेचता ।" गढ़पति की बातें सुन कर धनसुख चुपचाप आँसू गिरा रहा था। उसके मुँह से एक बात न फूटी । वह फिर साष्टांग प्रणाम करके चला गया। सातवाँ परिच्छेद महादेवी का विचार पाटलिपुत्र के प्राचीन राजप्रासाद के भीतर एक छोटी कोठरी में संध्या बीतने पर दो व्यक्ति बैठे हैं। उस छोटी कोठरी में नीलपट पड़े हुए हैं, भूमि कोमल बहुमूल्य पारसी कालीन से ढंकी है। हाथीदाँत के एक छोटे से सिंहासन पर महादेवी महासेनगुप्ता विराज रही हैं । उनके सामने सोने के सिंहासन पर राजसी पीत परिधान धारण किए, विविध आभूषणों से अलंकृत सम्राट प्रभाकरवर्द्धन बैठे हैं । घर के एक कोने में एक टिमटिमाता हुआ गंधदीप स्वच्छ नील पट की ओट से कोठरी के कुछ भाग पर मृदुल प्रकाश डाल रहीं था। अँधेरे में बैठी हुई दोनों मूर्तियाँ स्पष्ट नहीं दिखाई देती थीं । माता और पुत्र के बीच