पृष्ठ:शशांक.djvu/५७

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( ३७ ) स्वर्णमुद्रा जो मेरे पास इस समय है, मैं लाया हूँ, शेष थोड़े दिनों में पाटलिपुत्र से आ जाता है।" वृद्ध-कंगन का मूल्य क्या इतना अधिक होगा ? धनसुख-मेरी जहाँ तक परख है कंगन का मूल्य दस सहस्र स्वर्णमुद्रा से कम न होगा। वृद्ध-इतना अधिक मूल्य तुम दे सकते हो ? -अपने बेटे को पाटलिपुत्र भेजा है, उसके आने पर मैं दे सकता हूँ। वृद्ध निश्चिंत हुए, किंतु धनसुख उसी प्रकार सामने खड़ा रहा, गया नहीं। थोड़ी देर में गढ़पति ने फिर पूछा “धनसुख ! जापिल गाँव में हमारा एक सेनापति महेंद्रसिंह रहता था, क्या वह अभी है ?" धन-प्रभो ! महेंद्रसिंह का तो बहुत दिन हुआ स्वर्गवास हो गया, उनके पुत्र वीरेंद्रसिंह हैं जो अब खेती में लग गए हैं। फिर भी जापिल ग्राम में अभी आपके पुराने सेनानायक हरिदत्त, अक्षपटलिक विधुसेन और पर्वतखंड के सिंहदत्तजी जीवित हैं। वृद्ध के नेत्र दमक उठे। उन्होंने कहा “बहुत अच्छा हुआ जो तुम आ गए। मेरा पाटलिपुत्र जाने का विचार हो रहा है। तुम इन्हें मेरे पास भेज दोगे ?" बूढ़ा धनसुख घुटने टेक हाथ जोड़कर बोला “प्रभो ! मेरा अहोभाग्य कि आज मुझे आपका दर्शन मिला। इधर दस वर्ष से किसी ने आपका दर्शन नहीं पाया है। जो वंगदेश के युद्ध से लौट आए थे वे लजा से आपके सामने मुंह नहीं दिखा सकते । पर निश्चय जानिए, आपके दर्शन के लिए सब तरस रहे हैं । वे कल सबेरे ही दुर्ग में आपके दर्शन को 'आएँगे।' वृद्ध' के नेत्रों में जल झलक पड़ा। उन्होंने कहा “जो लोगे आना चाहें आएँ, उन्हें देखकर मैं बहुत सुखी