पृष्ठ:शशांक.djvu/७१

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( ५१ ) पड़ा। कोने में बहुत से मृतबान नीचे-ऊपर सजा कर रखे थे, बोरे के धक्के से वे बूढ़े के सिर पर आ गिरे। बुढ़िया फिर हाय-हाय करके चिल्ला उठी। रग्घू को कुछ चोट लगी । बुढ़ापे की चोट बहुत जान पड़ती है । वह टूटे-फूटे मृतबानों के बीच खड़ा-खड़ा अपनी पीठ और माथे पर हाथ फेरने लगा। बुढ़िया ने पूछा “बहुत चोट तो नहीं लगी ?" बुड्ढे ने पहले तो कहा 'नहीं।' अपना हित और प्रेम जताने के लिये बुढ़िया ने फिर वही बात पूछी । बुड्ढे ने इस बार झुंझला कर कहा "तू अपना प्रेम रहने दे, जान पड़ता है मेरा सिर चकनाचूर हो गया । तू अब हो गई बुड्ढी, तुझे कुछ सुझाई तो देता नहीं । किस ठिकाने क्या रखती है, कुछ ठीक नहीं ।' बुड्ढी चकपका कर बोली "मैं इस घर में नए बरतन लाकर क्यों रखने लगी ? बरतन-भाँड़े तो सब मैं भंडार के घर में रखती हूँ। मेरी समझ में भी नहीं आ रहा है कि इस घर में इतने बारे और हाँड़ियाँ कहाँ से आई।" बुड्ढा और भी खिझ- लाकर बोला, "तो भूत तेरे रूप पर लुभा कर रात को यह सब रख गए हैं। बकवाद छोड़ कर तू थोड़ा पानी ला | पीठ पर रक्त की धारा बह रही है । अरे बाप, रे बाप ! सारा कपड़ा रक्त से भीग गया ।" है बुढ़िया ने पास जाकर देखा कि बुड्ढे के सिर पर से मधु के समान गाढ़ी-गाढ़ी वस्तु पीठ पर बह रही है और उसके कपड़े तर हो रहे हैं। ऊपर आँख उठा कर उसने देखा कि सब हाड़ियाँ नहीं गिरी हैं, तीन चार अभी ज्यों की त्यों रखी हैं। उनमें से कुछ फूट गई हैं और उनमें से रस की धारा बह कर अब तक बुडूढे के सिर पर पड़ रही है । बुढ़िया ने देखा कि फूटी हाड़ियों में से बहुत से मोदक और लड्डू निकल कर घर में चारों ओर बिखरे पड़े हैं। किसी-किसी मृतबान से मिठाई का चूर मिला रस (शीरा) गिर कर भूमि पर फैल गया है