(५५) कभी कोई बारहदरी में नहीं बैठा। इस बीच में एक ओर की छत टूट गई और वहाँ एक पीपल का पेड़ उग आया । रग्घू गढ़पति के भवन से निकलकर बारहदरी की ओर आया और उसने धनसुख को बुलाकर कई युवकों को साथ ले लिया। उनकी सहायता से उसने बारहदरी में पड़े हुए कंकड़ पत्थर बाहर फेंके । फिर धनसुख के साथ लगकर उस स्वर्णसिंहासन को पत्थर के संपुट से बाहर निकाला। दोनों ने मिलकर सिंहासन को काली चौकी पर रखा । सिंहासन की कारीगरी अनोखी थी। उसे देखने के लिये चारों ओर से लोग झुक पड़े । बहुत बूढ़ों को छोड़ और किसीने रोहिताश्व गढ़पतियों के इस सिंहासन को नहीं देखा था। चार सिंहों की पीठ पर एक बड़ा भारी प्रस्फुटित स्वर्णपद्म स्थापित था जिसके चौरस सिरे पर रत्नों और मोतियों से जड़ा पटवस्त्र पड़ा था । वस्त्र पुराना और जीर्ण हो गया था, स्थान स्थान पर सोने का काम मैला पड़ गया था, फिर भी सिंहा- सन अत्यंत मनोहर था । जिस समय सब लोग अलिंद में सिंहासन देखने के लिये झुके हुए थे रग्घू पीछे से चिल्ला कर बोला- "दुर्गस्वामी महानायक युवराजभट्टारकपादीय श्री यशोधवलदेव का आगमन हो रहा है। सुनते ही सब लोग पीछे हट गए और कई सैनिक वेशधारी वृद्ध आगे बढ़कर जनता के सामने स्थिर भाव से खड़े हो गए। शुभ्रं उत्तरीय वस्त्र धारण किए, लंबे लंबे श्वेत केशों पर शुभ्र उष्णीष बाँधे, खड्ग हाथ में लिए यशोधवलदेव आकर सिंहासन पर बैठ गए। रग्घू कहीं से एक फटापुराना लाल कपड़ा लाकर उसे सिर में बाँध अलिंद के सामने आकर खड़ा हो गया । सब के पहले एक दंतहीन शुक्लकेश वृद्ध अलिंद के सामने आया और उसने कोश से तलवार खींच उसकी नोक अपनी पगड़ी से लगाई । रग्घू ने पुकारा “सेनानायक हरिदत्त" । वृद्ध गढ़पति
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