पृष्ठ:शशांक.djvu/७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(५८) युवक ने तलवार हाथ में लेकर भूमि टेक कर प्रणाम किया । वृद्ध अक्षपटलिक अब तक अलिद में चुपचाप बैठे थे । सबके अभिवादन कर चुकने पर वे उठ कर बोले "प्रभो ! वंग देश के युद्ध के पीछे प्रजा ने नियमित रूप से अपना कर नहीं भेजा था। वीरेंद्रसिंह, धनसुख और इस सेवक ने गाँव-गाँव आदमी भेज कर मंडलों को अपना-अपना कर चुकाने के लिये विवश किया । वे सब यहाँ बाहर खड़े हैं । आज्ञा हो तो सामने लाऊँ ।” आज्ञा पाकर विधुसेन एक-एक करके मंडलों और ग्रामवासियों को बुलाने लगे और वे अपना-अपना कर लाकर सिंहासन के सामने रखने लगे। धनसुख सोने-चाँदी और ताँवे के सिक्कों को अलग-अलग करके गिनने लगा। इसी में दोपहर बीत गया । धनसुख सब गिन चुकने पर बोला "एक हजार, दो सौ अठारह स्वर्ण मुद्रा, ढाई सौ रुपये और सौ से ऊपर ताँबे के सिक्के आए हैं।" इतना सब हो चुकने पर सिंहासन के सामने धनसुख घुटने टेक कर बैठ गया । धीरे- धीरे कपड़े के भीतर से उसने दुर्ग स्वामिनी का कंगन निकाला और उसे सिंहासन के सामने रख कर हाथ जोड़ बोला "प्रभो ! इतने बड़े अमूल्य कंगन का गाहक पाना मेरे लिये असंभव है। इसका मूल्य पचास सहस्त्र स्वर्णमुद्रा से भी अधिक होगा।" दुर्गस्वामी ने उठकर धनसुख को गले लगाया और वे कहने लगे "धनसुख ! मैं तुम्हारी सब युक्ति समझता हूँ। इस बार तो तुम्हारे अनुग्रह से दुर्ग स्वामिनी का कंगन बिकने से बच गया पर मैं देखता हूँ कि अब इसकी रक्षा मेरे लिये कठिन ही है । रोहिताश्वगढ़ के कोषाध्यक्ष का पद बहुत दिनों से खाली पड़ा है। अब दुर्गस्वामिनी के इस कंगन की और इस धन की रक्षा तुम करो। जो रुपया तुमने मुझे दिया था वह इसी में से काट लेना। दुर्गस्वामिनी ने कहा था कि पोते या पोती के ब्याह के समय इसे मेरा चिह्न कह कर देना । जब कभी कीर्तिधवल की कन्या का विवाह हो तब इस चिह्न को उसे देना।' दुर्गस्वामी का