( ५७ ) उसे शांत करके कहा "विधुसेन ! यदि एक बार भी तुम आ गए होते तो मुझे पेट पालने के लिये दुर्गस्वामिनी का कंगन न वेचना पड़ता"। यह बात सुनकर विधुसेन फिर दुर्गस्वामी के पैरों पर लोट पड़ा और रोते रोते बोला “प्रभो! यह सब मैंने धनसुख के सुँह से सुना । मैं यह नहीं जानता था कि मेरे न रहने से मेरे स्वामी की अवस्था इतनी बुरी हो जायगी ।" वृद्ध' फिर रोने लगा। दुर्ग स्वामी ने उसे शांत करके बारहदरी में बिठाया। कुछ काल पीछे वह अपने दोनों पौत्रों को दुर्ग स्वामी के पास . लाया । उन्होंने भी रीति के अनुसार तलवार और स्वर्णमुद्रा गढ़पति के पैरों के नीचे रख कर अभिवादन किया। , उसके पाछे एक-एक करके सौ से ऊपर वृद्ध सैनिक अपने पुत्र पौत्रों को लेकर गढ़पति का अभिवादन करने के लिये आए । उन सब ने भी यथारीति खड्ग तथा स्वर्ण, रजत या ताम्रमुद्रा सामने रख कर अभिवादन किया। गढ़पति ने भी उनकी तलवारें उन्हें लौटा दी। सैनिकों के पीछे साधारण भूस्वामियों, किसानों, बनिये महाजनों आदि ने अपने-अपने वित्त के अनुसार सोने-चाँदी या ताँबे के सिक्के सामने रख कर प्रणाम किया। देखते-देखते सिंहासन के सामने रुपयों और दीनारों का ढेर लग गया। सब के पीछे एक बलिष्ठ युवा योद्धा को साथ लेकर धनसुख अलिंद की ओर बढ़ा। युवक जब रीति के अनुसार अभिवादन कर चुका तव धनसुख प्रणाम करके बोला "प्रभो ! यह युवक आपके पुराने सेवक महेंद्र सिंह का पुत्र है, इसका नाम है बीरेंद्रसिंह । दुर्गस्वामी-पुत्र ! तुम्हारे पिता ने अनेक युद्धों में मेरा साफ दिया था। तुम्हारे पिता की तलवार आज मैं 'तुम्हारे हाथ में देता हूँ। मुझे पूरा भरोसा है कि तुम इसकी मर्यादा रख सकोगे। -
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