पृष्ठ:शशांक.djvu/८०

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नवाँ परिच्छेद भविष्यद्वाणी बैसाख का महीना है। एक पहर दिन चढ़ते चढ़ते धूप इतनी कड़ी हो गई है कि कहीं निकलने का जी नहीं करता । भागीरथी का चौड़ा पाट बालू ही बालू से भरा दिखाई पड़ता है। सूर्य की किरनों के पड़ने से बालू के महीन महीन कण इधर उधर दमक रहे हैं । बालू के मैदान का एक किनारा धरे स्वच्छसलिला, हिमगिरिनंदिनी गंगा की पतली धारा बह रही है । धारा के दोनों ओर थोड़ी थोड़ी दूर तक गीली बालू का रंग कुछ गहराई या श्यामता लिए है । सफेद झक बालू के मैदान के बीच यह गहरे रंग की रेखा अंजन की लकीर सी दिखाई देती है । इस कड़ी धूप में धारा के पास की गीली बालू पर बैठे दो बालक खेल रहे हैं। एक बालिका भी पास बैठी है। दोनों बालकों में जो बड़ा है वह भीगी धोती पहने जल में पाँव डुबाए बैठा बैठा गीली बालू का घर बना रहा है। उससे कुछ दूर पर दूसरा लड़का भी बालू का घर बनाने में लगा है। बालिका दोनों के बीच में बैठी देख रही है। बड़ा लड़का बड़ी फुरती से कोट और खांई बनाकर उसके भीतर मंदिर उठा रहा है। हाथ में गीली बालू ले लेकर वह मंदिर का चूड़ (फँगूरा) बना रहा है। उँगलियों से उठा उठाकर वह गीली बालू मंदिर की चोटी पर रखता जाता है जिससे मंदिर की चोटी बहुत ऊँची हो जाती है पर बोझ अधिक हो हो जाने से गिर पड़ती है। बालिका एकटक यही देख रही है। कभी बड़े लड़के के मंदिर की चोटी ऊँची हो जाती कभी छोटे के मंदिर की।