पृष्ठ:शशांक.djvu/८१

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जब जिसका मंदिर अधिक ऊँचा उठता तब वह बालिका को पुकार कर उसे दिखाता । धूप की प्रचंडता बराबर बढ़ती जाती है इसका उनमें से किसी को ध्यान नहीं है, वे अपने खेल में लगे हैं। धारा के किनारे किनारे मैले और फटे पुराने कपड़े पहने एक वृद्ध उनकी ओर आ रहा है, इसे उन्होंने न देखा। जब वह पास आकर खड़ा हुआ तब उसकी परछाई देख बालिका चौंक पड़ी और डरकर बड़े लड़के के पास चली गई। बुड्ढे के पैरों की ठोकर से मंदिर और गढ़ चूर हो गया । छोटा लड़का यह देख ठट्ठा मारकर हँस पड़ा । वृद्ध ने कहा "कुमार ! खेद न करना, तुम्हें इस जीवन में खेद करने का अवसर ही न मिलेगा। काल की चपेट से तुम्हारी आशा के न जाने कितने भवन गिर गिर कर चूर होंगे" | तीनों विस्मित होकर वृद्ध के मुँह की ओर ताकते रह गए। बुड्ढा अपने फटे कपड़े का एक कोना बालू पर बिछाकर बैठ गया । बहुत देर पीछे बड़े लड़के ने पूछा “तुमने मुझे पहचाना कैसे ?" बुड्ढे ने हँसकर उत्तर दिया “कुमार शशांक ! तुम्हें जो न पहचानता हो ऐसा कौन है ? तुम्हारे पिंगलकेश ही तुम्हारी पहचान हैं । इन्हीं केशों के कारण उत्तरापथ में तुम्हें सब पहचानेंगे । युद्ध-क्षेत्र में तुम्हारे शत्रु तुम्हारे इन केशों को ताड़ेंगे। तुम्हें पहचान लेना कोई कठिन बात नहीं है" । बृद्ध पागलों के समान हँस पड़ा। तीनों और भी चकित हुए, बालिका कुमार के और भी पास सरक गई। वृद्ध एक बारगी उठकर खड़ा हो गया, उसने कपड़े के भीतर से एक बंसी निकाली, पर न जाने क्या समझ उसे फिर छिपा कर बोला “कुमार ! तुमसे मैं बहुत सी बातें कहनेवाला हूँ, पर यहाँ न कहूँगा । मेरे साथ आओ”। मंत्र मुग्ध के 'समान तीनों उसके पीछे हो लिए। आग सी तपती गंगा की रेत पार करके वृद्ध प्राचीन राज-