सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:शशांक.djvu/८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( ६५ ) उसके साथियों ने उनको नहीं देखा, पर उस वृद्ध ने देख लिया। उन्हें निकट पहुँचते देख वृद्ध बोल उठा “कुमार ! अब मैं भागँ । बहुत से लोग आ रहे हैं। जब तुम मर्मव्यथा से व्याकुल होगे तब मैं फिर दिखाई पड़ गा , समझे ।" इतना कहते-कहते वृद्ध ने पीपल की एक डाल तोड़ ली और उसके ऊपर सवारी करके देखते-देखते दृष्टि के ओझल हो गया। शशांक, माधवगुप्त और चित्रा तीनों भय और विस्मय से कठपुतली बने खड़े रह गए। नाव पर से उतरे हुए लोग घाट के पास आकर खड़े हुए। उनमें से एक वृद्ध साथ के युवक से बोला "जान पड़ता है कि राजघाट यही है । इधर बीस वर्ष से मैं पाटिलपुत्र नहीं आया । वीरेंद्र ! कोई मिले. तो उससे मार्ग पूछ लो । वीरेंद्र-प्रभो! घाट पर तो कोई नहीं दिखाई पड़ता है। वृद्ध-अभी ऊपर की सीढ़ी पर कोई खड़ा था न । वीरेंद्रसिंह ने ऊपर चढ़कर बालक-बालिका को देखा और उनसे पूछा “यह प्रासाद के नीचे का घाट है ?" शशांक उदास मन एकटक उसी ओर ताक रहे थे जिधर वह वृद्ध जाकर लुप्त हो गया था । वीरेंद्र- सिंह की बात पर उन्होंने दृष्टि फेरी । जो बात पूछी गई थी वह उनके में अब तक नहीं पड़ी थी। उन्होंने पूछा “क्या कहा ?" वीरेंद्र ने झुंझलाकर कहा “बहरे हो क्या ? मैं पूछता हूँ कि क्या यह प्रासाद का घाट है ।" शशांक ने प्रश्न का कोई उत्तर न देकर पूछा “तुम कौन हो ? कहाँ से आते हो ?" वीरेंद्र और भी कुढ़ गया और बोला "बाबा ! तुम्हारी सब बातों का मैं उचर दूँ, इतना समय मुझे नहीं है। प्रासाद का घाट किधर है यही मुझे बता दो।" "प्रासाद का धाट तो यही है, पर इस मार्ग से साधारण लोग नहीं जा सकते।" कान ५