पृष्ठ:शशांक.djvu/८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पेड़ों का जंगल लगा था, और कहीं-कहीं पत्थर के पुराने खंभे दिखाई पड़ते थे । पहले कभी वहाँ पत्थर का बहुत बड़ा बौद्ध मंदिर था। उसके गिर जाने पर बौद्ध भिक्खुओं ने सामने एक छोटा सा मंदिर उठा कर उसमें प्रतिमा स्थापित कर दी थी। घास पर बैठे जो भिक्खु बातचीत कर रहे थे वे सब के सब तरुण अवस्था के थे। उन्हें देखने से जान पड़ता था कि उन्हें गृहस्थ आश्रम छोड़े बहुत दिन नहीं ए हैं । गृहत्यागी भिक्खुओं में जैसी गंभीरता होनी चाहिए वैसी उनमें अभी नहीं आई थी। उनके बीच एक अधेड़ भिक्खु भी बैठा था। अवस्था में उनके जोड़ का न होने पर भी वह उनके साथ मिलकर हंसीठट्ठा करता था। इस भिक्षुमंडली से थोड़ी दूर पर एक तरुण भिक्खु बैठा था । वह मन ही मन न जाने क्या सोच रहा था जिससे उसके साथियों का हँसीठट्ठा उसके कानों तक नहीं पहुँचता था। भिक्खु लोग उसकी ओर दिखा दिखाकर न जाने क्या क्या कहते और ठट्ठा मार मार कर हँसते थे। किंतु जिसपर यह सब बौछार हो रही थी उसका ध्यान कहीं दूसरी ही ओर था। वह मानो कुछ सुनता ही न था । इसी बीच एक युवती मंदिर के सामने आ खड़ी हुई । उसे देखते ही भिक्षुओं की हँसी रुक गई। एक ने उस अधेड़ का हाथ दबाकर कहा "आचार्य ! जान पड़ता है कि यह युवती तुम्हारी ही खोज में आई है"। भिक्खु उसे रोककर बोला "तू पागल हुआ है। आचार्य अब स्थविर हो गए हैं। युवती स्त्री बूढ़े को खोजकर क्या करेगी ?" पहले भिक्खु की बात तो बूढ़े को बहुत अच्छी लगी, उसका चेहरा खिल उठा पर दूसरे की बात सुनकर उसका मुँह लटक गया, वह मन ही मन जल उठा और बोला "तू मुझे बूढो कहता है, एक स्त्री के सामने ? मैं अभी तेरे प्राण लेता हूँ।"