( ७१ ) भिक्खु-हमारे संघाराम में कोई तरुण भिक्खु किसी युवती से एकांत में नहीं मिल सकता। रमणी-मैं एकांत में मिलना नहीं चाहती। भिक्खु-तो फिर गुप्त बात कहोगी कैसे ? रमणी-मैं पत्र लाई हूँ। भिक्खु-लाओ, दो। रमणी-क्षमा कीजियेगा ! जिनानंद को छोड़ मैं पत्र और किसी को नहीं दे सकती। भिक्खु-जिनानंद भिक्खु को पहचानोगी कैसे ? रमणी-मेरे पास संकेतचिह्न है । इतने में पीछे से एक भिक्खु पुकार कर बोला "अरे, ओ जिनानंद ! कुछ देखते सुनते भी हो ? क्या एकबारगी समाधि लगा रखी है ?" और भिक्खुओं से दूर जो भिक्खु बैठा बैठा कुछ सोच रहा था उसने सिर उठाकर देखा । दूसरा भिक्खु फिर बोला “यह रमणी तुमसे मिलने आई है। तुम क्या सारी बातें नहीं सुनते थे। इसे देखकर अभी क्या क्या रंग उड़े थे।" जिनानंद कुछ न बोला। रमणी को देखते ही वह घबराया हुआ उसके पास गया और बोला "तरले ! तुम कब आई ? क्या समाचार है ?” रमणी कुछ देर तक उसका मुँह ताकती रही, फिर प्रणाम करके बोली "भैया जी ! नए भेस के कारण मैं पहचान नहीं सकी थी। समाचार बहुत कुछ है, पर ये बाबा लोग भलेमानस नहीं जान पड़ते। चलिए उधर ओट में चलें। रमणी मंदिर के पीछे पेड़ों के झुरमुट की ओर बढ़ी | तरुण भिक्खु भी पीछे पीछे गया । वृद्ध अब तक तो चुपचाप बैठा रहा । पर जिनानंद और तरला के पेड़ों के झुरमुट में जाते ही उठा और उनकी ओर बढ़ा । उसकी
- संघाराम = वह उद्यान या स्थान जहाँ बौद्धों का संघ रहता हो।