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पृष्ठ:शशांक.djvu/९२

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( ७२ ) । यह लीला देख कई तरल भिक्खु हँस पड़े। वृद्ध ने उन्हें घूरकर कहा "तुम सब अभी बच्चे हो, स्त्री-चरित्र क्या जानो। मैं इस कुमार्गी भिक्खु को ठिकाने पर लाने के लिये जाता हूँ।" भिक्खु हँसते हँसते लोट पड़े । वृद्ध ने देखकर भी न देखा। वह बाघ की तरह दबेपाँव पेड़ों के बीच दबकता हुआ उन दोनों के पीछे पीछे चला जाता था । वृद्ध के अदृश्य हो जाने पर एक भिक्खु बोला “यह जिनानंद कौन है, तुम लोग कुछ कह सकते हो।" दूसरा भिक्खु-रूपरंग तो राजपुत्रों का सा है। वह किसी धनी का पुत्र है इसमें तो कोई संदेह नहीं। पहला भिक्खु-जिनानंद का कोई गूढ़ रहस्य है, जो किसी प्रकार खुलता नहीं है। दू० भिक्खु-यह कैसे कहते हो ? प० भिक्खु-संघस्थविर ने तुमसे कुछ कहा नहीं था ? ० भिक्खु-न। प० भिक्खु-तुम थे नहीं, कहीं गए थे। जिनानंद जिस दिन आया है उस दिन संघस्थविर ने सब को बुलाकर कहा है कि उसपर बराबर दृष्टि रखना, वह आँख की ओट न होने पाए। रात को भी उसकी कोठरी के बाहर दो भिक्खु सोते हैं । न जाने कितने नए भिक्खु आए पर ऐसी व्यवस्था किसी के लिए नहीं की गई थी। दू० भिक्खु-जान पड़ता है कि कोई भारी शिकार है। संघ के जैसे बुरे दिन आज हैं उन्हें देखते नए शिकार की इतनी चौकसी होनी ही चाहिए।

  • संघस्थविर = बौद्ध मठाध्यक्ष या संप्रदाय का नायक ।