पृष्ठ:शशांक.djvu/९७

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. 5 (७७ ) "करना धरना तो मैं जानता नहीं, हाँ शशांक अब तक जीवित है।" "तब तुम गए थे क्या करने ?" "बंधुगुप्त ! मैं क्या करने गया था, इसे जान बूझकर न पूछो । मैं शशांक को मारने गया था, पर मार न सका ।" "क्या दाँव नहीं मिला?" “दाँव मिला था। शशांक, माधवगुप्त और चित्रा तीनों गंगा के किनारे खेल रहे थे। उनके साथ कोई रक्षक भी नहीं था ।" "तब फिर ?" "तब फिर क्या ? मार नहीं सका, और क्या ? बंधुगुप्त ! मेरा हाथ न उठ सका । तुमने जो वज्र मुझे दिया था, वह अब तक वस्त्र के भीतर छिपा है। मैं उसे बाहर न निकाल सका । स्थविर ! नरहत्या करने से तुम्हारा हृदय पत्थर का हो गया है, तुम्हारे अंतःकरण की कोमल वृत्तियाँ सब लुप्त हो गई हैं। मैं क्यों लौट आया, यह तुम नहीं समझ सकते। तुम्हारा उपदेश सुनकर मैं शशांक को मारने का दृढ़ निश्चय करके यहाँ से चला था । जिस समय दूर उनको अस- हाय अवस्था में गंगा के बालू पर बैठे देखा था, तब तक भी मैं विच- लित नहीं हुआ था। पर जब मैं उनके पास गया तब ऐसा जान पड़ा मामो वज्र की मुट्ठी से किसी ने मेरा हाथ थाम लिया है। तुम्हारे उपदेश के अनुसार शशांक को मैंने उसके जीवन का भीषण भविष्य तो सुना दिया, पर उसकी हत्या न कर सका । स्थविर ! भाग्यचक्र में सब बँधे हैं, ललाट में जो लिखा है वह कभी टलने का नहीं। तुम्हारे ऐसे सैकड़ों संघस्थविर, मेरे ऐसे हजारों वज्राचा मिलकर भी उस चक्र की गति तिल भर फेर नहीं सकते। स्थविर गंगा की रेत में उस बालक का मुख देखकर मैंने समझ लिया कि बक्रसेन या बंधुगुप्त से उसका एक बाल भी बाँका नहीं हो सकता।"