पृष्ठ:शशांक.djvu/९६

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ग्यारहवाँ परिच्छेद यशोधवल की बात बौद्ध मंदिर के भीतर घोर अंधकार है । घृत का एक दीपक टिमटिमा रहा है, किंतु उसके प्रकाश में देवप्रतिमा का आकार भर थोड़ा-थोड़ा दिखाई पड़ रहा है। सामने पुष्प, गंध और नैवेद्य सजाकर रखा है देखने में जान पड़ता है कि मंदिर में कोई नहीं है। मंदिर के एक कोने में एक लंबे आकार का पुरुष बैठा है। वह न कुछ बोलता है, न हिलता डोलता है; जान पड़ता है कि ध्यानमग्न है। इतने में द्वार पर से किसीने पुकारा "स्थविर महाराज मंदिर में हैं या नहीं ?" भीतर से उत्तर मिला “कौन ?" "शक्रसेन " "भीतर चले आओ।" वही हमारा परिचित वृद्ध कंधे पर पेड़ की डाल रखे मंदिर में घुसा। लंबे डीलवाले पुरुष ने पूछा "वज्राचार्य ! यह पेड़ की डाल कहाँ पाई?" "यह मेरठ घोड़ा है, इसी के बल से यशोधवल के हाथ से बचकर मैं आ रहा हूँ। नहीं तो अब तक तुम यही सुनते कि वज्राचार्थ्य का परिनिर्वाण हो गया ।" "तब क्या तुम कुछ कर न सके ?"