पृष्ठ:शिवशम्भु के चिट्ठे.djvu/१२

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होली कन्हैया घर।" कनरसिया शिवशम्भु खटिया पर बैठ गए, सोचने लगे कि होली खिलैया कहते हैं कि चलो आज कन्हैया के घर होली खेलेंगे। कन्हैया कौन ब्रज के राजकुमार और खेलने वाले कौन, उनकी प्रजा—ब्रज के ग्वाल-बाल। तो क्या आज हम अपने राजा के साथ होली खेल सकते हैं। लेकिन राजा तो दूर सात समुद्र पार है। राजा का केवल नाम सुना है, न राजा को शिवशम्भु ने देखा है और न राजा ने शिवशम्भु को। खैर राजा न सही उसका प्रतिनिधि तो है, ठीक वैसे ही जैसे कृष्ण द्वारका में थे और उद्धव को ब्रज में अपना प्रतिनिधि बनाकर उन्होंने भेजा था। लेकिन आज तो स्थिति ही विचित्र है। "कृष्ण है, उद्धव है, पर ब्रजवासी उनके निकट भी नहीं फटकने पाते। राजा है, राज-प्रतिनिधि है, पर प्रजा की उन तक रसाई नहीं। सूर्य है, धूप नहीं। चंद्र है चांदनी नहीं, माइलार्ड नगर में ही हैं पर शिवशम्भु उनके द्वार तक नहीं फटक सकता है, उसके घर चलकर होली खेलना तो विचार ही दूसरा है। प्रजा की बोली वह नहीं समझता, उसकी बोली प्रजा नहीं समझती। द्वितीया के चांद की तरह कभी-कभी बहुत देर तक नजर गड़ाने से उसका चंद्रानन दिख जाता है तो दिख जाता है। यदि किसी दिन शिवशम्भु शर्मा के साथ माइलार्ड नगर की दशा देखने चलते तो वे देखते कि इस महानगर की लाखों प्रजा भेड़ों और सूअरों की की भांति सड़े-गंदे झोंपड़ों में पड़ी लोटती है। उनके आसपास सड़ी बदबू और मैले सड़े पानी के नाले बहते हैं, कीचड़ और कूड़े के ढेर चारों ओर लगे हुए हैं। उनके शरीर पर मैले-कुचैले फटे चिथड़े लिपटे हुए हैं, ऐसी विपन्नावस्था में भारत की प्रजा क्या कहकर अपने राजा और उसके प्रति-निधि को संबोधन करें। क्या यों कहें कि जिस ब्रिटिश राज्य में हम अपनी जन्मभूमि में एक अंगुल भूमि के अधिकारी नहीं, जिसमें हमारे शरीर को फटे चिथड़े भी नहीं जुड़े और न कभी पापी पेट को पूरा भोजन मिला उस की जय हो। उसके राजप्रतिनिधि हाथियों का जलूस निकालकर सबसे बड़े राज्य हाथी पर चंवर-छत्र लगाकर निकलें और स्वदेश में जाकर प्रजा के सुखी होने का डंका बजावें।"

शिवशम्भु शर्मा को लार्ड कर्जन के शासनकाल में जिस घोर दुराशा का सामना करना पड़ा वह उनके छठे चिट्ठे से स्पष्ट लक्षित होता है।