को निर्दोष ठहराते हुए कहा कि—"यह तो यहां के नमक की तासीर है। यहां का नमक खाकर विचार-बुद्धि खो जाती है। दया और सहृदयता भाग जाती है, उदारता उड़नछू हो जाती है। आंखों पर पट्टी बांधकर कानों में ठीठे ठोककर, नाक में नकेल डालकर, आदमी को जिधर-तिधर घसीटे फिरता है और उसके मुख से खुल्लमखुल्ला इस देश की निन्दा कराता है। आदमी के मन में वह (नमक) यही जमा देता है कि जहां का खाना वहां की खूब निन्दा करना और अपनी शेखी मारते जाना।" कर्जन के लिए इससे बढ़कर और क्या व्यंग्य हो सकता है।
भारतवर्ष की जनता नाना प्रकार के कष्टों को झेलती हुई भी राजा को दोषी नहीं ठहराती। वह अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल ही कष्ट में देखती है और फिर भी कर्ज़न अपनी कुटिलता में उसे धूर्त कहता है। शिवशम्भु की कर्जन को यह कुटिलता सालती है और उसका मन अपने देश की भोली जनता की दरिद्र दशा पर द्रवित हो उठता है। वह कर्जन से कहते हैं कि आप नहीं जान सकते कि हम भारतीयों की नीति-परायणता, सत्यवादिता और धर्मनिष्ठा कैसी है। आपके स्वदेशी यहां बड़ी-बड़ी इमारतों में रहते हैं, जैसे रुचि हो वैसे पदार्थ भोग सकते हैं। भारत आपके लिए भोग्य भूमि है। किन्तु इस देश के लाखों आदमी, इस देश में पैदा होकर आवारा कुत्तों की भांति भटक-भटककर मरते हैं। उनको दो हाथ भूमि बैठने को नहीं, पेट भरकर खाने को नहीं, मैले चिथड़े पहनकर उमरें बिता देते हैं। और अंत में एक दिन कहीं पड़कर चुपचाप प्राण दे देते हैं। इस प्रकार क्लेश पाकर मरने पर भी कभी-कभी वह लोग यह कहते हैं कि पापी राजा है, इससे हमारी यह दुर्गति है। माइलार्ड! वे कर्मवादी हैं। वह यही समझते हैं कि किसी का कोई दोष नहीं—सब हमारे पूर्व कर्मों का दोष है। हाय! हाय! ऐसी प्रजा को आप धूर्त कहते हैं।"
हमारे देश में होली का पर्व उत्साह और उमंग का उत्सव है। इस दिन छोटे-बड़े का भेदभाव दूर कर सभी नागरिक समान रूप में भाईचारे का व्यवहार करते हैं। राजा और प्रजा के बीच की दूरी भी होली के दिन मिट जाती है। शिवशम्भु को ऐसे ही किसी दिन अचानक एक मधुर गीत की टेक सुनाई देती है। कोई बड़ी मस्ती में गा रहा है—"चलो चलें आज खेलें