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शिवशम्भु के चिट्ठे


उसके सिंहासनको, अकबरको या उसके तख्तको? शाहजहांकी इज्जत उसके गुणोंसे थी या तख्तेताऊस से? आप जैसे बुद्धिमान पुरुषके लिए यह सब बातें विचारनेकी हैं।

चीज वह बननी चाहिए, जिसका कुछ देर कयाम हो। माता-पिताकी याद आते ही बालक शिवशम्भुका सुख-स्वप्न भङ्ग हो गया। दरबार समाप्त होते ही वह दरबार-भवन, वह एम्फीथियेटर तोड़कर रख देनेकी वस्तु हो गया। उधर बनाना, इधर उखाड़ना पड़ा! नुमायशी चीजोंका यही परिणाम है। उनका तितलियोंका-सा जीवन होता है। माई लार्ड! आपने कछाड़के चाय वाले साहबोंकी दावत खाकर कहा था कि यह लोग यहां नित्य हैं और हम लोग कुछ दिनके लिए। आपके वह "कुछ दिन" बीत गये। अवधि पूरी हो गई। अब यदि कुछ दिन और मिलें, तो वह किसी पुराने पुण्यके बलसे समझिये। उन्हींकी आशा पर शिवशम्भु शर्मा यह चिट्ठा आपके नाम भेज रहा है, जिससे इन मांगे दिनों में तो एक बार आप को अपने कर्तव्य का खयाल हो।

जिस पद पर आप आरूढ़ हुए, वह आपका मौरूसी नहीं। नदी-नाव संयोग की भांति है। आगे भी कुछ आशा नहीं कि इस बार छोड़ने के बाद आपका इससे कुछ सम्बन्ध रहे। किन्तु जितने दिन आपके हाथ में शक्ति है, उतने दिन कुछ करने की शक्ति भी है। जो आपने दिल्ली आदिमें कर दिखाया, उसमें आपका कुछ भी न था, पर वह सब कर दिखानेकी शक्ति आपमें थी। उसी प्रकार जानेसे पहले, इस देशके लिए कोई असली काम कर जाने की शक्ति आपमें है। इस देशकी प्रजाके हृदयमें कोई स्मृतिमन्दिर बना जानेकी शक्ति आपमें है। पर यह सब तब हो सकता है कि वैसी स्मृतिकी कुछ कदर आपके हृदय में भी हो। स्मरण रहे धातुकी मूर्तियोंके स्मृतिचिह्नसे एक दिन किलेका मैदान भर जायेगा। महारानी का स्मृति मन्दिर मैदानकी हवा रोकता था या न रोकता था, पर दूसरों की मूर्तियां इतनी हो जावेगी कि पचास-पचास हाथ पर हवाको टकराकर चलना पड़ेगा। जिस देश में लार्ड लैंसडौनकी मूर्ति बन सकती है, उसमें और किस-किसकी मूर्त्ति नहीं बन सकती? माई लार्ड! क्या आप भी चाहते हैं कि उसके आसपास आपकी भी एक वैसी ही मूर्त्ति खड़ी हो?