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शिवशम्भु के चिट्ठे


हिन्दुस्थानमें एक हरी पत्ती तक बेनमक नहीं है, मानो यह देश नमकसे सींचा गया है। किन्तु शिवशम्भु शर्माका विचार इस कविसे भी कुछ आगे है। वह समझता है कि यह देश नमककी एक महाखानि है, इसमें जो पड़ गया, वही नमक बन गया। श्रीमान् कभी चाहें तो सांभर झीलके तटपर खड़े होकर देख सकते हैं। जो कुछ उसमें गिर जाता, वही नमक बन जाता है। यहां के जलवायुसे अलग खड़े होकर कितनोंहीने बड़ी-बड़ी अटकलें और लम्बे-चौड़े मनसूबे बांधे, पर यहांके जलवायुका असर होते ही वह सब काफूर हो गये।

अफसोस माइ लार्ड! यहांके जलवायुकी तासीरने आपमें अपनी पिछली दशा के स्मरण रखनेकी शक्ति नहीं रहने दी। नहीं तो अपनी छ: साल पहलेकी दशासे अबकी दशाका मिलान करके चकित होते। घबराके कहते कि ऐं मैं क्या हो गया? क्या मैं वही हूं, जो विलायत से भारत की ओर चलने से पहले था? बम्बईमें जहाजसे उतरकर भूमि पर पांव रखते ही यहांके जलवायु का प्रभाव आपपर आरम्भ हो गया था। उसके प्रथम फलस्वरूप कलकत्ते में पदार्पण करते ही आपने यहां के म्यूनिसिपल कार्पोरेशन की स्वाधीनता की समाप्ति की। जब वह प्रभाव कुछ और बढ़ा, तो अकालपीड़ितों की सहायता करते समय आपकी समझ में आने लगा कि इस देश के कितने ही अभागे सचमुच अभागे नहीं, वरञ्च अच्छी मजदूरीके लालच से जबरदस्ती अकालपीड़ितोंमें मिलकर दयालु सरकार को हैरान करते हैं! इससे मजदूरी कड़ी की गई।

इसी प्रकार जब प्रभाव तेज हुआ, तो आपने अकाल की तरफ से आंखों पर पट्टी बांधकर दिल्ली-दरबार किया। अन्त को गत वर्ष आपने यह भी साफ कह दिया कि बहुतसे पद ऐसे हैं, जिनके पैदाइशी तौरसे अंगरेज ही पाने के योग्य हैं। भारतवासियों को सरकार जो देती है, वह भी उनकी हैसियत से बढ़कर है। तब इस देशके लोगों ने समझ लिया था कि अब श्रीमान् पर यहां के जलवायु का पूरा सिक्का जम गया। उसी समय आपको स्वदेश-दर्शन की लालसा हुई। लोग समझे, चलो, अच्छा हुआ, जो हो चुका, वह हो चुका, आगेको तासीरकी अधिक उन्नति से पीछा छूटा। किन्तु आप कुछ न समझे। कोरियामें जब श्रीमान् की आयु अचानक सात