पृष्ठ:शिवशम्भु के चिट्ठे.djvu/७

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नहीं। हाकिमों से हाथ मिलाने की उसकी हैसियत नहीं, उसकी हां में हां मिलाने की उसकी ताब नहीं। वह एक कपर्दक-शून्य घमंडी ब्राह्मण है। हे राज प्रतिनिधि। क्या उसकी दो-चार बातें सुनिएगा?

शिवशंभु शर्मा ने अपनी हैसियत और सामर्थ्य की बात जिस गंभीर व्यंग्य में कही है वह भारतीयों की दलित-दमित दशा का ही एक बोलता हुआ शब्दचित्र है। 'बनाम लार्ड कर्जन' शीर्षक चिठे में लेखक ने बड़ी प्रखर और निर्भीक वाणी में कर्जन से कहा है कि "जिस पद पर आप आरूढ़ हुए वह आपका मौरूसी नहीं-- नदी नाव संयोग की भांति है। आपके हाथ में कुछ दिन और कुछ करने की शक्ति है। लेकिन माइलार्ड! क्या आप भी चाहते हैं कि आपके आसपास एक वैसी ही मूर्ति (लार्ड लैंसडौन जैसी) खड़ी हो? यदि आपको मूर्तियाँ ही स्थापित करनी हैं तो आइए आपको मूर्तियां दिखा दें। "वह देखिए एक मूर्ति है, जो किले के मैदान में नहीं है, पर भारतवासियों के हृदय में बनी हुई है। पहचानिए इसे, इस वीर पुरुष ने मैदान की मूर्ति से इस देश के करोड़ों गरीबों के हृदय में मूर्ति बनवाना अच्छा समझा। यह लार्ड रिपन की मूर्ति है। और देखिए एक स्मृति मंदिर, यह आपके पचास लाख के संगमर्मर से अधिक मजबूत और सैकड़ों गुना अधिक कीमती है। यह स्वर्गीया विक्टोरिया महारानी का सन् १८५८ ई० का घोषणा-पत्र है। आपकी यादगार भी यहीं बन सकती है, यदि इन दो यादगारों की आपके जी में कुछ इज्जत हो।"

लार्ड कर्जन को अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद दूसरी बार फिर दो वर्ष के लिए वायसराय नियुक्त किया गया। भारतवासी इस नियुक्ति परु अत्यन्त खिन्न हुए लेकिन वे करते भी क्या-"जो कुछ खुदा दिखाए सो लाचार देखना।" शिवशंभु को भारत प्रभु कर्जन के इस द्विरागमन की सूचना मिली तो उन्होंने भी बेबसी से सिर धुन डाला लेकिन कलम के जरिये माईलार्ड को उनकी पुरानी करनी के लिए कोसते हुए 'श्रीमान् का स्वागत' शीर्षक से दूसरा चिट्ठा लिखा। चिट्ठे में लार्ड कर्जन के काले कारनामों का व्यंग्यमयी भाषा में उल्लेख तो उन्होंने किया ही पर भाग्य-वादी विवश-लाचार भारतीयों की तटस्थ वृत्ति पर भी गहरे प्रहार किए। भारतवासी संघर्षभीरु हैं, किसी भी संकट को स्वीकार करना, निलिप्त-