जावेंगे तो यह कभी न कह सकेंगे कि भारत की प्रजा का मन अपने हाथ में किया था।
शिवशम्भु की वाणी में न तो कहीं घिघियाहट है और न कहीं मिथ्या अहंकार का दर्प। उन्होंने स्पष्टवादिता को व्यंग्य में सानकर, निर्भीकता का पुट देकर बड़े सहज ढंग से प्रस्तुत किया है। अंग्रेजी राज्य के अखंड प्रताप को शिवशम्भु जानते थे और यह भी जानते थे कि लार्ड कर्ज़न जैसे प्रचंड शासक के विरोध में कुछ भी कहने की शक्ति भारतीयों में नहीं है किन्तु शिवशम्भु न तो भारत के राजा-महाराजा थे और न नौकरशाही के गुलाम पुर्जे। उनका स्वाभिमान परतंत्रता के क्षणों में आहत होने पर भी विनष्ट नहीं हुआ था। इसलिए जब उन्होंने लार्ड कर्ज़न और अंग्रेजों के प्रभुत्व का वर्णन किया तो उस पौराणिक निरंकुश राजा का स्मरण किया जिसे रावण के नाम से जाना जाता है। लेकिन स्मरण की शैली इतनी मोहक और मर्मस्पर्शी कि शिवशम्भु राजनीतिक द्रोह के अपराध में पकड़े न जा सके। भारत के निस्तेज और निर्वीर्य राजा-महाराजों की दशा पर व्यंग्य करते हुए वे कहते हैं—"भारत के राजा अब आपके हुक्म के बंदे हैं। उनको लेकर चाहे जुलूस निकालिए, चाहे दरबार बनाकर सलाम कराइए, चाहे उन्हें विलायत भिजवाइए, चाहे कलकत्ते बुलवाइए, जो चाहे सो कीजिए, वे हाज़िर हैं। आपके हुक्म की तेजी तिब्बत के पहाड़ों की बरफ को पिघलाती है, फारस की खाड़ी का जल सुखाती है, काबुल के पहाड़ों को नरम करती है। जल, स्थल, वायु और आकाश मंडल में सर्वत्र आपकी विजय है। इस धराधाम में अब अंग्रेजी प्रताप के आगे कोई उंगली उठाने वाला नहीं है। इस देश में एक महाप्रतापी राजा के प्रताप का वर्णन इस प्रकार किया जाता था कि इंद्र उसके यहां जल भरता था, पवन उसके यहां चक्की चलाता था, चांद-सूरज उसके यहां रोशनी करते थे, अग्नि उसके यहां भोजन पकाती थी इत्यादि। पर अंग्रेजी प्रताप उससे भी बढ़ गया है। समुद्र अंग्रेज़ी राज्य का मल्लाह है, पहाड़ों की उपत्यकाएं बैठने के लिए कुर्सी-मूढ़े। बिजली कलें चलाने वाली दासी और हजारों मील खबर लेकर उड़ने वाली दूरी, इत्यादि-इत्यादि।"
लार्ड कर्जन को प्रबोधते हुए शिवशम्भु ने भारतीय विचार-दर्शन का