पृष्ठ:शिवशम्भु के चिट्ठे.djvu/१०

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बड़ी मार्मिक शैली में दुहराया है। राजा मुंज को समझाते हुए बालक भोज ने कहा था, "नैकेनापि संमंगता वसुमती मुंजस्त्वया यास्यति।" ठीक उसी भाषा में शिवशम्भु कहते हैं—"विक्रम, अशोक और अकबर के साथ यह भूमि नहीं गई। औरंगजेब-अलाउद्दीन इसे मुट्ठी में दबाकर नहीं रख सके। महमूद, तैमूर और नादिर इसे लूट के माल के साथ ऊंटों और हाथियों पर लादकर न ले जा सके। आगे भी यह किसी के साथ नहीं जाएगी, चाहे कोई कितनी ही मजबूती क्यों न करे।"

भारत की प्रजा को यह आशा थी कि दूसरी बार वाइसराय होकर आने पर लार्ड कर्जन भारतीयों के हित के लिए कुछ न कुछ अवश्य करेंगे। उन्हें ऐसी भी आशा थी कि बड़े लाट अपने भाषण में उन सुधारों का उल्लेख करेंगे जो इस बार वे भारत में करना चाहते हैं किंतु उनका प्रथम भाषण भारतीयों की 'आशा का अंत' करने वाला सिद्ध हुआ। शिवशम्भु को भी इस भाषण से गहरी ठेस पहुंची और उन्होंने अपने पांचवें चिट्ठे में अपनी वेदना को बड़ी व्यंग्यमयी भाषा में अभिव्यक्त किया। शिवशम्भु ने पहले ही वाक्य में कहा—"माइलार्ड, अब के आपके भाषण ने नशा किरकिरा कर दिया। आशा से बंधा यह संसार चलता है। रोगी को रोग से, कैदी को कैद से, ऋणी को ऋण से, कंगाल को कंगाली से—इसी प्रकार हरेक क्लेशित व्यक्ति को एक दिन अपने क्लेश से मुक्त होने की आशा होती है। पर हाय! जब उसकी यह आशा भी भंग हो जाए, उस समय उसके कष्ट का क्या ठिकाना—

"किस्मत पे उस मुसाफिरे खस्ता के रोइये।
जो थक गया हो बैठ के मंजिल के सामने।"

अफसोस माइलार्ड! बड़े लाट होकर आपके भारत में पदार्पण करने के समय इस देश के लोग श्रीमानजी से जो-जो आशाएं करते थे और सुख स्वप्न देखते थे, वह सब उड़नछू हो गए।"

शिवशम्भु शर्मा ने भारतीय जलवायु और यहां के नमक का प्रभाव दिखाते हुए लार्ड कर्जन की कृतघ्नता उद्घाटित करने में बड़े कौशल से काम लिया है। भारत का नमक खाकर भी भारतीयों की निंदा करने वाले कर्जन