सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८५
शिवसिंहसरोज

________________

बारह हजार राजपूत कटि हाथी तीस सुवेस दल।। जैचंद फौज- मुरकी चली परी फौज सामंततल ॥ २॥

(दिल्लीखण्ड दिल्ली की प्रशंसा)

भर हट्ट सुलक्खनयं भरयं ।
धरि वस्तु अमोल नये नरयं । तिन वीच महल्ल सुतक्खनयं । लख कोटि धनी सुकवी गनयं ।। नरसागर तागर सुद्ध परै । परि राति सुरायन वाद खरै ।।. मचिकीच उगौलन हट्ट मझे। दिखिदेव कलासन दाव दझे॥ रचि तारवितारन मंति नवी । परि जानि हुतासन लत्तछवी ॥ मनु सावक पावक मद कियं । विन तार अतारन भार लियं ॥ इन रूपटगं मग चाहनयं । मनु सूर सबै ग्रह राहनयं ।। तिन तट्ट कलिंदयतट्ट सजं । धरमज्झन तार अनेक सजं ॥ तिन अग्ग सुमंतसुमग्गनयं । लखि लक्खचौरासिय उद्धनयं ॥ पचि चल्लिय नीलियमानिकयं । रतन जतन मनितेजकय । सभ दिल्लिय हट्ट सुनेर मुझे । करिंदत मिलत गिरंत सुझे ॥ दै सामतदामित रूपकला । वर वीर उठै घटि मत्तकला ॥

१७३. चंद कवि (२)
मैन के वान वने धनुही भृकुटी मुख चंद चही । श्रोउनि में उपमा प्रतिबिंब की दंत कि पंगति कुंद सही। चंद कहै नव नीरद से कैच अंग सु हेमकी गौरि गही। नाजुक हीन नई मुख की उपमा नहिं एकहु जाति कही ।। १ ।।

आसपास पुहमी प्रकास के पगार सूझै वनन अगार डीठि है रही निवरते । पारावार पारंद अपार दसौ दिसि बूड़ी चंद ब्रहमंड उतरात विधुवर ते ॥ सरद जुन्हाई ज ह्णधार सहसा सुधाई सोभासिंधु नव सुभ्र नव गिरिवर ते । उमड़ो परत जोतिमंडल अखंड सुधामडलमही ते विधुमंडल-विवर ते ॥२॥ १ लौटी। २ भौंह । ३ वाल । ४ दीवार । ५ पारे का समुद्र । ६ चंद्गके छिद्र से।