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पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१०३

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शिवसिंहसरोज

जो छत्री कुल सुद्ध बरनि चर रखेहु प्रानह॥
देखत दिखिवत परिष पलछनक विलंब न अब करिय।
पल गारि रेनी दिन पंच महूँ क्यों रुकुमिनि कन्हर बरिय॥

दोहा-ग्यारह से चालीस यक, जुद्ध अतुल भरि रोह।
कातिक कृदि बुध त्रयोदसि, सपरसमिली लोह॥१॥

छप्पै

समुद सिखर गढ़ परनि राउ डिंल्ली दिसी चल्लिव।
बादसाह सुनि खबरि धाय वीचहि रन भिललीव॥
सकल सिमिटि स मंत चंद कैमास बुद्बिर।
लडेय जुद्ध चौहान गचो पृथिराज साहु कर॥

राजपूत टूटी पचप्त रन लुटि जवर सैना हनिय।
पट्ठान सात हज्जार पर जीति चयो चलवो संभरि-धनिय॥१॥

(आल्हखंड)

छप्पै

हाँकि पील पृथिराज चाल्यो चे ल सनम्मुख।
इस मंत्र ऊच्चारि धारि जंत्र-रुख॥
नरपति आा संभार बान सन्धानि पानि किय।
खैची राज छेदंत लगि वाम पिंड दिय॥

वेधंत हीक छेदंत तन फुटि सनाह हैबर मिल्यो।
सायक बाहि संभरी धनी खरग खोलि डीलन पिल्य॥१॥

हनि तालन पट्ठान कन्ह काढे़ सु प्रान रन।
सेंगर सो निगराय भान चंदेल पर तन॥
जालन्ह केसवदास पास परिहाँस हाँस भव।
और गिरे बहु बीर धीर आये पुंगव॥

फ़ील=हाथी। २ चढ़ाया । ३ धनुष जिरहबख्तर