पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१२

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( अग्निपुराग ) नरवं दुर्लभ लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा । कवित्वं दुर्भ तत्र शक्निस्तत्र सुदुर्लभा ॥ भाषा दोहा-नरतन दुरलभ लेक मैं, ताते विद्या जानि । विद्या ने एनि का कहि, ताते सक्ति सुमानि ॥ ( अथ काव्य को कारण ) प्रथम सक् िव्युत्पत्ति पुनि, तीजो पुनि अभ्यास । कारन तीन सुकाव्य के, वरनत सुमतिविलास ॥ प्रथम सर्वविद्याईशान श्रीसांव-सदाशिव हैं । । उनके पीछे संस्कृतकाध्ष के प्रथम आचार्य श्रीव्रह्माजी को समझना चाहिये। जिन्होंने चंदस्वरूप वेद का निर्माण किया । दूसरे आचार्य श्री बाल्मीकिजी हैं, जिन्होंने आादिकाव्य रामायण को नाना बंदों में रचा । उपरांत मनु महाराज इत्यादि और याज्ञवल्क्य इत्यादि महानपीश्वरों ने चिंश स्मृतियों को अपने-अपने नाम से बनाया। फिर श्रीवेदव्यास महाराज ने भारतइतिहास को अष्टादश पुरा सहित रचा, और ऋषीश्वरों ने अष्टादश उपपुराण बनाये । इसके पीछे संस्कृतसाहित्य के तीन प्राचार्य हुए-भरत, भाम, मम्मट । इन्हीं तीनों आचार्यों ने काप के दसों अंग विस्तार पूर्वक वर्णन करके काव्यप्रकाश नाम ग्रंथ बनाया । तदनन्तर सैकड़ों आचार्य हुए और उन्होंने सैकड़ों काव्य के ग्रंथ बनाये । कुछ व्यारा हमारे बनाये हुए कविमाला नाप ग्रंथ से प्रकट होगा। यह केवल संस्कृत- काव्य के विवरण में ३४ दोहे उसी ग्रंथ से लिखते हैं ( कविमालानाम ग्रंथे ) दोहा मंगलपूरति गौरियुतसंकरमुवन गनेस । हरिवल्लभ करिवरघदन, बानी-सदन दिनेस ॥ १ ॥ में & ) ।