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पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१२१

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१०२
शिवसिंहसरोज

१०२ शिवसिंहंसरोज धूमधाम ध्रुवलोक सोक सुरपति प्रतिपष्ट ॥ गवन रहित समीर नीर नदनदी निघटेडू । करिनिकर डिकरि चिरि कहरि खैबर पर चट्टई ॥ हिमगिरि सुमेर कैलास डिगि जब हरि हरि संकरहस्यों । टेम कोपि५ हजरतग्रली जब जुल्फकार कम्मर कस्यो ॥ १ ॥ २०६. जगतासिंह विसेन देउतवाले ( पिंगल ) मोरपखानि वनो सिर मौर लगे प्रति केसरि भाल अनूप । टे झलकें त्रुति कुंडल मोतिन मालौंगरे लखिधे युरगूप ॥ पीतपटौ तन अंगंद बाहु कलानिधि स मुख है अनुरूप । सुवे वजावत आावत साँझ गये गड़ेि नैनन लीन न रूप ॥ १ ॥ सील लसे ससि सी नखरेख खरी उपेटी उर पै नगमालै । पेंच खुले पगरी के बने जनु गंग-तरंग बनी छविजारे ॥ जागत रौनिहु के अलसाय कियो विषपान रहे दृग लालैं । देखहु अंग संखी हरि को हैर को धरि थावत रूप रसाझे ॥ २॥ तन सोहत नील दुर्गोल गरे अरु त्यों मनिमाल विराजतं सुंदर । विवि कुंडल कानन हीरा जरे अरु लि रहे कच आनन ऊपर ॥ नवरन भुजान भरी छविपुंज बने कल कंकन कंचन के कर । विन अंजन रंजन कंजनभेज़न जनगंजन नैन मनोहर ॥ ३ ॥ ( साहित्यपुधानिधिग्रन्थे ) वरवें श्री सरजू के उत्तर ग़ड़ा ग्राम । तेहि पुर बसत कविनगनआठौ जाम I १ ॥ तिन महें एक आल्प कवि अतिमतिमंद । जगतसिंह सो बरंनत वरटें बंद ॥ २ ॥ १ उभरी ।२ शिव ।३ घरू।