पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१३३

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शिवसिंहसरोज

११४ शिवसिंहसरोज श्रीजगजीवन गंगहि जानि मिली अरबैग दिल्ली हर ही को। सौति को संभे विरि पियं की परतींतिsन पारवती को १ ॥ खेलत एक समै ब्रजवाल सों नन्दलला रंस माहें रुसाई । गे थति अंर्चत जीत सखी पर एक भाँति न जंात मनई ॥ ग्राही यि अंातुर हैप्रिंस के जगजीवन कैठ लगाई। आधि वांत कहीं तुर्तगत थिंक में खिंयाँ भरिआई ॥ २ ॥ २३६. जदुनाथ कधि बेर वेर गये ते अधिक गेहेरति रुति एप्ति तौ सिरति नाहीं भारी भये रही जू । पंल के वियोग पिघलाने जाति मोर्म के ज्यों धीरे धीरे पीर पैरें पीर नेक संतो ॥ जो ने पतिंयाड जदुनाथ मेरे साथचलौ बोलत ने वःि ऐहै औोझिल हैं रह ढूं । पाँय नों गंदन दंति पास नो रद्दन इंत बात ना कंदन देर्ति कहा करी कं' ॥ १॥ २४०. जगदीश कवि कुंडलरूप सख विराजत औ औौ विच मोती की जोति प्रकासी । श्रीजगदीप विोकंत आए गड़ी हिय में नहिं जाति निकासी । जा लेखें ते फंसे सनकादिक एक बंयो संoमें अविनांसी। छांजतपीरीफीनासिकर्मअली नत्थ किधों मनमत्थ की सीख २ठे २: जलालुद्दीन कवि आदि के अंक षि नां जग जीवत मध्य विना जग दीन कइपे। अंत बिना सगरो जग है बस जाहिर ज़ोति मु ाँ छवि छावें । अंक जिते जग लोक कलांलदी जा मनसा तिय को अति भावें। श्याम के अंग में रंगे प्रसिद्ध है पीडित होय ों अंर्थ बतातें हैं। ४२. जयसिंह कवि. । की थीमेर- सेर तजि गये री अनेक भाँति कीधी उत् ददुर कभ होता है , २ Mrम.१कर • यह पहेली है-काजत। ३ मेढ़क