पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१३४

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शिवसिंहसरोज

रिसिंहसरो ११५ न बोलत नये दई की पिक चात चकोर कोऊ मारि डरे कीधी वकाँति करें अंतगत है गई ॥ झींगुर झिगा” नोहेिं कों- किला उचारे नादि वैन कहै जयसिंह दस दिस वें गंई । जारि डारे मदन महरि बारे मोर सब जू िगये मेघ कीधाँ दामिनी सती भई ॥ १ है। २४३. जुगुल कवि दोऊ गलबड़ियाँ धरे हैं ! रति रतिपैति रुति मोहदलित कोरि ललित क़दंव तरे हैं। घन हासिनि जॉमिनिकर की दुति तन महें मंजू मरे हैं । कमल मीन मद यूज़न बंजन छवि चख च रु भरे हैं। नील पीत पट मीत अलौकि सकल सिंगार करे हैं । मंद मंद मुसलात परस्पर प्रेम के फंद: परे हैं। छतियाँ जुडैल जुगुल सियव्रत वतियाँ करत खरे हैं ॥ १ ॥ २४४. जगन्नाथदास पद पिशु औचक ढंदेरी पाछे ते नैन । हाँ जु निर्भरमी बैठी अंजून आन पग धुरत घरन पर आावत जाने में न ॥ हाँ इतने ही चौंकि परी आली छतियाँ धीर धेरै न । जगन्नाथ काबिराय के ठ री िफंसे तब ह . रंसी वह , कहूत बनै न ( १-॥ २४५, जैतकवि तीर कमान राही बंलमंड मार मंची घमसान मचायो । जोगिनी रज भारी भई सिव सैंकर मुंड की माल ले आायो । १.कोयल। २ उच्चारण करती. ।.३. कामदेव । - ४ चंद्र ।५ दोनों - 1 . ६ ठंडी करते । ७ खड़े भैरम ! धीरेधीरे।