पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१४६

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरोज १२७ को उदार अति सुखद अपार से । भूधर-अकार तेरे उरज गरार मेरे मोइन के यार खरवूजा टोपीदार से ॥ ७॥ ____ऊल उखरत दुख-रत अभुयानी वाल चित्त अनुमानी हाय होत हितहानि है । कहै कवि तोख घनितान प्रानि पानि गही मुरि मुसक्याय पान दीन्हो गहि पानि है ।। ऊख अरहरि सन-वन ऐसो राखि है जो ताहि हम राखि हैं सकलसुखदानि है । भानि है जो कोऊताहि हरि हेरि भानि हौंरी हुकुम भवानी को न मानि है सोजानि है ॥ ८॥ २६५. तोखनिधि कवि कम्पिलावासी अरी जाको लगी तन सों सोइ भोगै, न जानै प्रसूति विया बझरी । हरनी होइ भूमि में क्यों न गिरी सर सादर सार भई मझरी ।। निधि-तोख तू क्यों समुहे भई री न बचाई कटाच्छन की नजरी । घरजोरी बिहारी के नैनन सों करवाई करे कहिकै झगरी ॥१॥ (व्यंग्यशतकनन्धे) दोहा-कितिक दूरि ते सुनि लई, द्रुपदसुता की टेर । कानन कान्ह रुई दई, दैया मेरी वेर ॥ १॥ भैरुही भारथभीर. मैं, राखी घंटा तोरि । तेई तुम अब क्यों रहे, मोहीं सों मुख मोरि ॥२॥ विस्वंभर नामै नहीं, कि मैं विस्व मैं नाहिं। इन द्वै मैं झूठी कवन, यह संसय मन माहिं ॥ ३ ॥ ऊसरतजि वरखैन घनालख्योन पावसमाहिं। मंगन के गुन-अवगुनन, दाता निरखत नाहिं ॥ ४ ॥ (नखशिख) देखे अरुनाई करुनाई लगै कंजन को मृगन गुमान तजि लाज गहिवे परी । तोखनिधि कहै अलिछौननहू दीनताई मीनन्छ १ जच्चा की पीड़ा । २ बाँझ । ३ एक पक्षी-भारत युद्ध में रणभूमिछ में भरुही के अंडों पर घंटा टूट पड़ा, जिससे उनकी रक्षा हुई।