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पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१५३

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शिवसिंहसरोज

१३४ शिवसिंहसरोज • a. h सायो री बैंक के दरन को ॥ तब ने कहा थाँ परस्यो धौं उरजात इंहि परस्यो कहा थाँ कहा आपने करने को । नागरि गुनागरि चलत भई ताही बन गागरि लै रीती जमुनाजल भरन को 7-१ ॥ ( गारनिय ) कैसी अनियारी एरी अजब निकाई भरी खामोदरी पातरी उदर तरो पान सो । सकल मुदस्य अंग विरह थकित है ”के पीछे को विमल तेरे मन की कमान सो ॥ उरज सुमेरु आगे त्रिवली बिमल सीढ़ी सोभासर नाभिसिंधु तीरथ समान सो । हारन की पॉति आवागवन की बँधी है ही मुकुत सुमन शृंद करत अ हन स ॥ १ ॥ ( रसदारश ) धयो खान पान धूल्यो पटपरिधान सर्वे लगन को भूले गयो बा औ निवासु री । चकि रहीं गैयाँ चारो चोंचन चिरैयाँ दावि चितबनि चल चख चेत चिलु नायु री ॥ है थ्री मरी सी है परी सी खंभालु जाई जीवत जनार्वे ट्रैक आवै डग बच ी। कान्हर स कैसे के छड़ाय ले री मेरी बीर कब की बिसासिनि बगह विष वाँसुरी ॥ १ ॥ (प्रेमरक्षाकरग्रन्थे ) दोहा-संवत सत्रह सौ बरसबयालीस निरधार । आस्त्रिन सुदि तेरसि किये, सुभ दिन ब्रेथविचार ॥ . ॥. को रजपूतानी जन्यो, ऐसो और सपूत । ना ऐसो दाता करें, ना ऐसो रजपूत ॥ २ ॥ ऐसे अनेत गुनन करि, जगमगात रतनेस । जाके दावन सौ लक्ष्यो) जदुमंडल को देस ॥ ३ ॥ रजधानी जदुपतिन की, नगर कौंरी राज । जुहूँ डित अरु कचिन को राजत बड़ो समाज ॥ ४ ॥ o