पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१६

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भापा म नहीं देखा गया । भाषा-काव्य का मूल खोजने कं लिये मैंने बड़े-बड़े ग्रन्थ यथावत् विधिपूर्वक बहुत उलटे-पुलटे; पर कुछ भी पता नहीं चला । मैंने विचारा, कदाचित् भाषा का प्रथम आचार्य चंद कवीश्वर न हो, जिसने संवत् ११२५ में नाना छन्दों में पृथ्वीराजरासा रचाहै । जब पृथ्वीराजरासा के पत्र उलटे, तो विदित हुआ कि चन्द कवि से पहले भी बहुतेरे अच्छे-अच्छे कवीश्वर हो गुजरे हैं । तब मैंने टाडसाहब की किताव राजस्थान और राजतरंगिणी इत्यादि हिन्दू राजों के प्राचीन इतिहासों को देखना- भालना शुरू किया । किताब राजस्थान में मुझको अवंतीपुरी के एक प्राचीन इतिहास में लिखा मिला कि संवत् सात सौ सत्तर में अवंतीपुरी के राजा भोज के पिता राजा मान काव्यशास्त्र में महानिपुण थे। उन्होंने संस्कृत अलंकार-विद्या पूषी नाम एक चंदीजन को पढ़ाई । पूषी कवि ने संस्कृत अलंकारों को भाषा दोहरों में वर्णन किया । उसी समय से भाषा-काव्य की जड़ पड़ी। और, कुछ आश्चर्य नहीं कि उन्हीं दिनों किसी-किसी कविने नायिकाभेद इत्यादि के भाषाग्रन्थ बनाये हों । परंतु राजा भोज के समय में संस्कृत-विद्या का अधिक प्रचार होने के कारण भाषा यथावत् उन्नाति को प्राप्त न हुई हो । संवत् ८१२ में राउत खुमानसिंह गुहलौते सीसौदिया, महाराजा चित्तौड़गढ़, भाषा-काव्य के बड़े अधिकारी हुए । संवत् ९०० में खुमानरासा नाम ग्रंथ भाषा में अपने नाम से नाना छन्दों में बनाया । पीछे संवत् ११२४ में चन्द कवीश्वर ने पृथ्वीराजरासा भाषा में बनाना प्रारम्भ किया, और ६९ खंडों में एक लक्ष श्लोक ग्रंथ को रचकर पृथ्वीराज चौहान का जीवनचरित्र संवत् ११२० से संवत् ११४९ तक वर्णन किया । इन्हीं दिनों जगनिक और केदार कवीश्वरों ने चंदेलों और