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पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१७८

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शिवसिंहसरोज १५९ स्वादित चि रुचि उ पात्रत मृदु मनसा न अघानी ॥ सकति अमोघ विमुख भजन की प्रगट प्रभाव बखानी। मत्त मधु रसिकन के मन की रसरंजित रजधानी ॥ सखी रूप नवनीत उपासन मृत निकायो यानी । नीलसखी मनमामि नित्यमह अद्भुत कथन मथानी ॥ १ ॥ ३३१, नेही कवि टे फूटे घन गज बैरि बैरि के वाट उहुगन संग सैना अन गन लीनी है । जोगिनी लुटेरे दिया बारि घर पर बैठे घट घट माँझ आशि हूंकि हूंकि दीनी है ॥ झिल्लीगन चातक जिरह झनकार नेही तुम विन गोफिन की सुधि-बुधि छीनी है । यून जानि सदन सिधारे स्याम द्वारका को ससि आनि व्र ज पर रतिः वह कीनी है ॥ १॥ लघु मध्यम गुरु कहीं कहा तन बंधन कहिये । चाह तृपित को कहा कहा अलि को भख चहिये ॥ सुमति न बोघत कहा कहा विन जनक कहावत । उत्तम तन कहि कौन कौन पट रसहि वतावत ॥ कहु कहा सिंह भोजन करत का सुनि कायर मान डर। कदि नेही हंस बसत कहाँ चतुर कठौ की मानसर ॥ २ ॥ उड़नि गुलाल की घमेडि घन छाई रखो पिचकी चलत धार रस बरसाई है । चाँदनी सरद बुक चंद पुख छषि फबी कॉपत हिमंत भजे दोऊ सुखद7. है । ॥ घाइकें धरत पिय सिसके सि- सिर चीर केसरि सरीर ते बसंत दरसई है । श्रीपम गरूर वोल पिय सों कहत नेही फागु की समाज के धीं छओ ऋतु छाई है ॥ वे ॥ ३३२, नैन कवि प्रबल प्रचंड चंडकर की किरन देखो बैहर उदंड नव खंड पुमि