पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१७९

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शिवसिंहसरोज

१६ शिवसिंहसरोज लत है । अवनि कराही को-सो तेल रतनाकर सो ज्वाल की जहर उगिलत है ॥ ग्रीपम की ज्याल ज कराल यह काल ज्वालामुखि टू की देह पघिलत है । आसमान भूधर भभभूका भय भभाक भभकि भूमि द लत है ॥ १ ॥ ३३३. निधान कवि (१) लागी यु लगाइ लेक खेहनि खराब करों मारि अहार मारजारे को । सुकधि निधान कान अंगुरीन निहों न घोर सोर झिल्ली झनकारे को ॥ भेकन की सानन मिटाइ डालें मेटि डाऐं गरख गरूर उन कारे जो पकरि कहूँ जाल साँ जकरि तन फीहा फीहा करों दईमारे को ॥ १ ॥ ३३४निधान कवि (२) ( शालिहोत्र ) छप्पे सदर जहाँ जगजनित सुजस व बीज समय बली मुरतजाखान दान करि थालर थयों फिरि सैयद महमूद सींचि तरवारि वरी का मुकुत अरिन के घाव पत्र कीन्हे सवाघ धरि खुरम सैद साखा सघन वादुल्लाखाँ सुमन हु । देत सकल मनकामना आलि अकबर फल प्रगट तु ३३५. निटनिरंजन कवि ( शान्तिसरसी वेदत ) है जग मृत औ नायडू ठत है पूत ही के सैंग पूतन सेज में पूत खटोली में सूत है त के संग में प्रेत ही एक आपूत निपट्टनिरंजन मूत के बास में मृत ही