पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१८९

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१७०
शिवसिंहसरोज

१७० शिवसिंहसरोज़ जावक लै भाल को । मुकवि नरोत सरोजनैनी सील करि बलि बलि आगे उति मिली है गुपाल को ॥ अंचल साँ छि बगि चंचल बिसाल नैन असन बसन करि दसन रसाल को । पाछे है कहो जाइ, अरी सहचैरी धाँइ आरसी के महल बिछौना कर लाल को ॥ १॥ ३६३. नीलकंठमिश्रा जाके तन जोर आयो सर औ सराष हू को सो तो सहि सकें कैसे तेज अरितमा को कहै नीलकंठ जब पंडव कुबुद्धि भयो भाँची के भरोसे रिस राखी उर जमा को ॥ पीछे भो भारथ तौ स्वा रथ कहाँ को भयो मिटि गयो पाती जब रॉनी आनी से को। छबीतेन पाइ तियताड़न इगन देखें घंटें क्यों न हिया छत्री जिया ऐसी छमा को ॥ १ ॥ओोति सी जगी रहै जो सौतिक जगी रहै जो मेरे जान पाइ रूप भूपति जगी रहै ।नीलकंठ निरखि लजानी पन्नगी रहै सराह तनगी है समान ता न गीर है । ऐसी कलू हेरि दरि लेत हरि नीकी छवि हरिनी की छवि जाहि देखत ठगी है । लाल से रिझत है री लाल सकबार फार लाल ,से - अधर लखि लालसे लगी है ।.२ ॥. ३६४, नारायणदास दोहा-अजर अमर की रीति सों, विद्या-धनहि बढ़ाव । मनहु मीड चोटी ग%) देतचार नईि लाव ॥ १ ॥ जासों सब संसय मिटे) अनदेखा लो देख । पढ़िवो पोढ़ी खि है, अपढ़ औष करि लेख ॥ २ ॥ १ महावर।२लखी । ३ दौढ़।४ होमी। ५ दौपदी। ६ छीछी ।